अमेरिका ने किया जैसे को तैसा, क्या हम भी करेंगे चीन से ऐसा?
जितना हम कमाते हैं, उतना ही हम खर्च भी करें तो घर का बजट संतुलित रहता है। यदि हमारी कमाई, हमारे खर्च से अधिक है तो हम बचत कर पाते हैं और कहीं जो हमारा खर्च हमारी कमाई से अधिक हुआ तो हमें घाटा उठाना पड़ता है। किन्ही दो देशों के बीच आयात-निर्यात भी ऐसे ही चलता है। यदि किसी देश से हमारा निर्यात अधिक और आयात कम है तो यह हमारे लिए फायदे का सौदा है जबकि आयात अधिक और निर्यात कम हो तो यह हमारे लिए निश्चय ही घाटे का सौदा है।
भारत और अमेरिका के बीच लगभग 12 हजार करोड़ अमेरिकी डॉलर का व्यापार होता है जिसमें भारत को 2100 करोड़ अमेरिकी डॉलर का फायदा है। यानी कि हम अमेरिका में निर्यात अधिक करते हैं और वहां से आयात कम करते हैं। जाहिर तौर पर एक देश का फायदा दूसरे देश का घाटा है और अमेरिका ट्रम्प के नए शासन काल में यह घाटा बर्दाश्त करने के लिए कतई तैयार नहीं है। व्यापार संतुलन बनाने के लिए उसने अपने यहां आयातित वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाने का फैसला किया है जो कि उसका हक है। अब से पहले, विकसित देश होने के नाते वह विकासशील देशों को छूट दे दिया करता था पर खुद अपना घाटा सहकर कोई दूसरे का फायदा भला कब तक कर सकता था?
शुल्क बढ़ने से आयातित माल की कीमत स्वतः बढ़ जाती है और ऐसे में उसकी मांग में भी कमी आ जाती है। यदि अमेरिकी कम्प्यूटर या आईफोन हमें कम दाम पर मिलें तो हम भारत में बनें कम्प्यूटर या आईफोन क्यों खरीदना चाहेंगे? कोई भी सरकार आयातित वस्तुओं पर शुल्क इसीलिए लगाती है ताकि हम देसी माल ही खरीदें। तस्करी का धंधा इस शुल्क से बचने की ही कोशिश है। इससे तस्कर तो मुनाफा कमा लेते हैं पर सरकार को भारी घाटा उठाना पड़ता है।
हालांकि अमेरिका के व्यापार घाटे की बड़ी वजह यह है कि उसके शुल्क दूसरों देशों के शुल्क के बनिस्पत बहुत कम हैं। अब अमेरिका नहीं चाहता कि दूसरा देश तो उसके माल पर ज्यादा शुल्क लगाए जबकि वह दूसरे देश के माल पर कम शुल्क रखे। ट्रम्प ने फैसला किया है कि जो देश उसके माल पर जितना शुल्क लगाएगा, वह भी उसके माल पर उतना ही शुल्क लगाएगा।
चूंकि भारत सबसे अधिक फायदे का व्यापार अमेरिका के साथ ही करता है, अतः ट्रम्प के इस फैसले से उसे बड़ा झटका लगा है। भारत के सामने दो ही विकल्प हैं। या तो वह अमेरिका से आयातित माल पर शुल्क घटाए या फिर अपने निर्यात पर बढ़ाए जा रहे शुल्क को स्वीकार कर ले। दोनों ही स्थितियों में वह अमेरिका के सामने घुटने ही टेकेगा। यदि अमेरिका शुल्क बढ़ता है तो इसका असर भारत के निर्यात पर पड़ेगा और उसके डॉलर भंडार में कमी आएगी। इससे डॉलर का मूल्य तो बढ़ेगा ही, उससे खरीदे जानेवाले तेल एवं गैस आदि की भी कीमतें बढ़ेंगी। और यदि भारत ने अमेरिकी दबाव में शुल्क घटाने का पैसला किया तो गेंहूं से लेकर गाड़ियों तक के दाम घटेंगे जिसका सीधा असर भारतीय किसानों और उद्योगों पर पड़ेगा।
अपने व्यापार घाटे को खत्म करने के लिए अमेरिका, भारत को तेल-गैस के साथ-साथ आयुद्ध भी बेचना चहता है। भारत कच्चा तेल और आयुद्ध फिलहाल रूस आदि देशों से खरीद रहा है जो उसे किफायती पड़ता है। रूस या खाड़ी देशों की बजाय अमेरिका से तेल मंगवाना कितना किफायती होगा, यह समझा जा सकता है। इसी तरह, अमेरिका ने भारत को अपना एफ-35 विमान बेचने की पेशकश की है जो उसके कितने काम का है, यह कहना तो मुश्किल है पर इतना जरूर है कि हाल तक वह खुद यह विमान खरीदने की नहीं सोच रहा था।
भारत पहले ही साढ़े 18 करोड़ अमेरिकी डॉलर का व्यापार घाटा उठा रहा है। अमेरिका की इस नई निति के कारण उसका यह घाटा और भी बढ़ेगा। फिलहाल, अमेरिका ही एक ऐसा देश है जहां उसे आयात-निर्यात का फायदा मिल रहा है अन्यथा चीन सहित 75 देशों के साथ व्यापार में उसे घाटा ही घाटा है। भारत का व्यापार संतुलन कितना डगमग है, इसका अनुमान सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि 151 देशों से कमाई कर के भी वह घाटे में है। चीन से तो उसका यह घाटा 4200 करोड़ अमेरिकी डॉलर के बराबर है। आंकड़े तो घटते-बढ़ते रहते हैं पर यह एक हकीकत है कि भारत, चीन को जितना माल बेचता है, उससे कहीं ज्यादा वह उससे खरीदता है। रूस, सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, ईराक, इंडोनेशिया, जापान आदि तमाम देश भारत से कमा ही रहे हैं। जिन देशों से भारत की कमाई है, उनमें अमेरिका के अलावा नीदरलैंड का नाम लिया जा सकता है।
देखा जाए तो सिर्फ चीन से ही अपना व्यापार संतुलन बनाकर भारत बहुत हद तक अपना व्यापार घाटा पूरा कर सकता है। बावजूद इसके वह अगर ऐसा नहीं कर पा रहा है तो इसमें भारत के नेतृत्व का दोष है। कहने को चीन भारत का दुश्मन है और अमेरिका उसका दोस्त, फिर भी व्यापार में चीन को ही प्राथमिकता मिलती रही है। यदि ट्रम्प अपने देश की खातिर कड़े फैसले ले सकते हैं तो मोदी जी को उससे सीख लेते हुए चीन से व्यापार संतुलन बनाने की पहल करनी ही चाहिए। अगर भारत चीन में भारतीय वस्तुओं का निर्यात बढ़ा नहीं सकता तो कम से कम उसे अपने यहां चीनी वस्तुओं के आयात को कम करने की तो सोचना ही चाहिए।