प्रधानमंत्री की जान को खतरा हो और यह बात वह खुद कह रहे हों, तो इसपर गौर करना जरूरी हो जाता है। हम सब अब तक जान चुके हैं कि प्रधानमंत्री जी हुसैनीवाला के रास्ते भटिंडा से फिरोजपुर जा रहे थे और रास्ते में उनका रास्ता रोककर कुछ आंदोलनकारी खड़े हो गए। बताया जाता है कि जब वह घिरे तब उनका काफिला पुल पर था, जहां से वह न तो आगे जा सकते थे, और ना ही पीछे। इस कारण उन्हें लगभग 20 मिनट तक पुल पर ही रुकना पड़ा।
20 मिनट तक किसी प्रधानमंमत्री का काफिला रोड जाम में फंस जाए तो यह गंभीर मामला है। ऐसा देश की राजधानी दिल्ली में होता, तब भी यह गंभीर ही होता। जबकि हुसैनीवाला तो सीमावर्ती गांव है, तो यह मामला निश्चय ही कहीं और गंभीर कहा जा सकता है। हालांकि वह तब हुसैनीवाला तक पहुंचे नहीं थे, बल्कि उससे 30 किलोमीटर दूर ही थे। इस बारे में आगे कुछ कहने-सुनने से पहले पूरे इलाके को जान-समझ लेना जरूरी है।
हुसैनीवाला गांव के पश्चिम में पाकिस्तान का गांव है, गंडा सिंहवाला। जाहिर है कि गंडा सिंह सिख नाम है, जबकि हुसैन मुस्लिम नाम। यानी मुस्लिम नामवाला हुसैनीवाला गांव भारत में है और सिख नामवाला गंडा सिंहवाला गांव पाकिस्तान में। बंटवारे के पहले दोनों संयुक्त पंजाब के ही हिस्से थे। 1960 से 1970 तक यह दोनों ही देशों के लिए सीमा पार जाने का रास्ता था। फिर 1971 में दोनों ही गांव युद्ध का अखाड़ा बन गए और रास्ता बंद हो गया। इससे पहले 1965 में भी दोनों देशों के बीच हुसैनीवाला में जबरदस्त लड़ाई छिड़ी थी।
बहरहाल, इस रास्ते के बंद हो जाने के बाद ही वाघा-अटारी का रास्ता खोला गया। जिस तरह अटारी-वाघा सीमा पर शाम को दोनों देशों की सीमा पुलिस अपना-अपना राष्ट्रीय ध्वज समेटने के लिए कार्यक्रम करती हैं, ऐसा ही कार्यक्रम हुसैनीवाला-गंडासिंहवाला सीमा पर भी हर शाम होता है। फिर भी यहां आम पर्यटक नहीं पहुंचते। दोनों तरफ के स्थानीय लोग ही ज्यादातर इस कार्यक्रम को देखने के लिए पहुंचते हैं। इसमें अटारी-वाघा सीमा पर होनेवाले कार्यक्रम की तरह तनातनी का अहसास नही होता। दोनों पक्ष शांति से इस कार्यक्रम को संपन्न करते हैं।
हुसैनीवाला में सतलज नदी के तट पर अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव का अंतिम संस्कार हुआ था। तीनों को ही लाहौर के केन्द्रीय कारा में फांसी दी गई थी और फिर अंत्येष्टि क्रिया के लिए उनके पार्थिव शरीर को यहां लेकर आया गया। यह 23 मार्च 1931 की बात है। बंटवारे में यह स्थान पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था। 17 जनवरी 1961 को हमने पाकिस्तान से यह स्थान वापस ले लिया। बदले मे हमें उन्हें अपने 12 गाँव देने पड़े थे। हालांकि इसके बदले हमें यदि कुछ और इलाका भी देना पड़ता तो कम था। शहीदों के खून से सनी मिट्टी का कोई मोल नहीं होता। 1965 में बटुकेश्वर दत्त की अंत्येष्टि भी इसी स्थान पर की गई। उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी अंत्येष्टि उसी स्थान पर हो, जहां उनके इन साथियों की अंत्येष्टि हुई थी। 1968 में इन अमर शहीदों की स्मृति को समर्पित शहीद स्मारक बन कर तैयार हुआ और इसे लोकार्पित किया गया। यह स्मारक भारत-पाक सीमा से महज एक किलोमीटर दूर है।
यहीं फूल चढ़ाकर प्रधानमंत्री जी को आगे बढ़ना था। ध्यान देने की जरूरत है कि यदि वह राष्ट्रीय स्मारक तक पहुंचते तो वह सीमा से महज एक किलोमीटर की दूरी पर होते। ऐसे में उनकी जान को कितना बड़ा खतरा होता, यह सोचा जा सकता है। फिरोजपुर से हुसैनीवाला की दूरी मात्र 12 किलोमीटर है, जबकि लाहौर से गंडा सिंहवाला की दूरी 60 किलोमीटर। गंडा सिंहवाला और लाहौर के बीच क़सूर स्थित है जो सीमा से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर ही है। क़सूर में ही बुल्लेशाह की मजार है। बॉबी फिल्म का वह लोकप्रिय गीत हमें याद है, बेशक मंदिर-मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह ये कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता।
दूसरी तरफ हुसैनीवाला गांव में सूफी संत हुसैनीवाला की मजार है। पंजाब के पूरे इलाके में ही कभी सूफी संतों की गूंज थी और यह गूंज लाहौर से लेकर दिल्ली तक और रावलपिंडी से लेकर कश्मीर तक सुनाई देती थी। इश्क-मोहब्बत का पैगाम इनके गीत-संगीत में गूंजता था। साथ की सतलज नदी में सिंधु का जल तो आज भी उसी तरह बह रहा है, पर लोगों के दिलों में प्रेम का सोता सूखने लगा है। शायद पूरी तरह सूखा न हो, पर सुखाया जा रहा है। बुल्लेशाह और हुसैनीवाला को भुलाया जा रहा है।
सूफी संत हमें इश्क मजाजी से इश्क हकीकी की तरफ ले जाते हैं। जिसे जीवों से प्यार-मोहब्बत नहीं, उसे ईश्वर से प्यार-मोहब्बत क्या होगा भला? जिसे खुदा के बंदों के लिए खार और खीज हो, वह खुदा का खिदमतगार भला कैसे हो सकता है? राजनैतिक लाभ के लिए नफरत की दीवारें पोख्ता की जा रही हैं। जोड़नेवाली संस्कृति के ऊपर तोड़नेवाली राजनीति हावी होती जा रही है। हीर-रांझा में फरिश्तों का दीदार करनेवाली कौम को नफरत की आग में झोंकने और झुलसाने की कोशिशें हो रही हैं।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा का सवाल बहुत अहम है। उसमें किसी तरह की कोताही नहीं की जा सकती। इसमें राजनीति की दखलअंदाजी को भी मंजूरी नहीं दी जा सकती। पर क्या यह मान लेना सही होगा कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने भाजपा के प्रधानमंत्री की जान को खतरे में जानबूझ कर डाल दिया? आज जिस तरह मुख्यमंत्रियों तथा प्रधानमंत्री को पार्टी से बांधकर देखा जाने लगा है, क्या उसी तरह कभी कांग्रेस या भाजपा शासित प्रदेशों को पार्टी के साथ बांधकर देखा जाने लगेगा? भारत के राज्य राजनैतिक दलों के प्रकोष्ठ नहीं हैं, ना ही उनका संवैधानिक कार्यकारी किन्ही राजनैतिक दल का अगुआ है। किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री पर देश के प्रधानमंत्री की जान से खिलवाड़ करने का आरोप संवैधानिक मर्यादा को तार-तार करने वाला है। यदि ऐसा हुआ है तो उस मुख्यमंत्री को पद पर बने रहने का क्या अधिकार है और ऐसा नहीं है तो प्रधानमंत्री को ऐसा आरोप मढ़ने की जरूरत क्या है?
यदि सीमा से 30 किलोमीटर भीतर की सड़क पर प्रधानमंत्री का फंसना उनकी जान के साथ खिलवाड़ था तो फिर सीमा से महज 1 किलोमीटर दूर शहीद स्मारक पर उनका रुकना कितना बड़ा जोखिम होता, यह सोचा जा सकता है। क्या सेना के विमान सीमा पर नजर रखे हुए थे? यदि सेना के विमानों के लिए उस मौसम में उड़ान भर पाना संभव था तो फिर प्रधानमंत्री के विशेष हेलिकॉप्टर के लिए क्यों नहीं? एकमात्र प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों को ही राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ा जाता है, भले ही वह चुनाव प्रचार के लिए क्यों न आयोजित हो। इससे किसी भी प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि उनके व्यक्तिगत या राजनैतिक हितों के लिए राष्ट्रीय सशस्त्र बलों के जवानों की जान को जोखिम में न डाला जाए।
Very informative and analytical piece. Many congratulations