Deo Surya Mandir
देव सूर्य मंदिर

गया तथा वाराणसी के बीच औरंगाबाद में शेरशाह सूरी मार्ग से छह किलोमीटर दक्षिण देव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर कोणार्क से भी दो सौ साल अधिक प्राचीन है। इसके महात्म का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां साल में दो बार छठ के अवसर पर लाखों लोग जुटते हैं। वैसे तो सूर्य उपासना की परंपराएं कई स्थानों पर आज भी जीवित हैं, पर भारत भर मे यह अकेला प्राचीन सूर्य मंदिर है, जहां पूजा भी होती है।

मंदिर के पुजारियों से पूछिए तो वे गर्व से इस मंदिर को त्रेतायुगीन बताएंगे तथा अपनी बात की पुष्टि के लिए यहां की किसी शिलालेख का हवाला भी देंगे। उनके अनुसार यह किन्ही राजा ऐल द्वारा बनवाया गया। पर सच यही है कि यह मंदिर आठवीं शताब्दि का है और इसके निर्माता के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है इसका पश्चिमाभिमुख होना। इस क्षेत्र के लोगो को इस बात का गर्व है कि पश्चिमोन्मुख होने के कारण उनका मंदिर देश में अप्रतिम तथा अद्वितीय है।

देव सूर्य मंदिर के गर्भ में जो तीन प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित हैं, उन्हें त्रिकाल सूर्य बताया जाता है। त्रिकाल सूर्य यानी उषाकालीन सूर्य, मध्याह्न सूर्य तथा संध्याकालीन सूर्य। यह त्रिकाल सूर्य यहां ब्राहृा, महेश तथा विष्णु के रूप में विराजमान है। सृष्टि का सर्जक होने के कारण ब्रह्मा उषाकालीन सूर्य को प्रतीकित करते हैं। अपने तेज के कारण महेश मध्याह्न सूर्य के रूपक हैं। जबकि करुणानिधान होने के कारण विष्णु संध्याकालीन सूर्य का द्योतक हैं। हालांकि यहां पहुंचनेवाले श्रद्धालुओं को यह मालूम नहीं कि जिनके प्रति श्रद्धा भाव से वे दण्डवत करते हुए यहां पहुंचते हैं, उनमें से एक बौद्ध अवतार अवलोकतेश्वर की मूर्ति है।

इस मंदिर के पश्चिमोन्मुख होने को लेकर एक किम्वन्दन्ति है। अन्य सूर्य मंदिरों की तरह ही यह मंदिर भी पूर्व की ओर अभिमुख था। बताते हैं कि कभी काला पहाड़ नाम का कोई आततायी देश भर के मंदिरों को तोड़ता हुआ यहां आ पहुंचा था। उसकी यह मंशा देखते हुए देव सूर्य मंदिर के पुजारी उसके पास पहुंचे और भगवान सूर्य का वास्ता देते हुए उससे मंदिर न तोड़ने को कहा। काला पहाड़ ने चुनौतीपूर्ण अंदाज में कहा कि अगर जो तुम्हारे देवता इतना महात्म रखते हैं तो उनसे कहो कि सुबह तक मंदिर का द्वार पश्चिम की ओर कर दें। पुजारीगण इस चुनौती को स्वीकार कर वहां से चले गए। रात भर जागरण चलता रहा। भजन और कीर्तन थमे नहीं। और सुबह की किरणों ने साश्चर्य देखा कि मंदिर का द्वार उलटी दिशा में घूमा हुआ था।

इतना ही नहीं आततायी काला पहाड़ जड़ हो चुका था। अब भी लोग जी0टी0 रोड के साथ के एक पहाड़ को इंगित कर बताते हैं कि यही वह काला पहाड़ है। इस किम्वन्दन्ति में ही मंदिर का सच छिपा है। काला पहाड़ कोई परिकथा का नायक नहीं, बल्कि लोदी सुल्तानों का वास्तविक सेनानायक था और वह वाकई मंदिरों को ध्वस्त करता हुआ पूर्वांचल तक पहुंचा था। यहां तक कि कोणार्क के प्रसंग में भी काला पहाड़ का उल्लेख मिलता है। लोदी शासन सन् 1451 से 1526 तक रहा। ये आततायी गतिविधियां उसी दौरान की हैं। बहुत संभव है कि देव का प्राचीन एवं प्रतिष्ठत सूर्य मंदिर इसका शिकार हुआ हो, पर यहां के पुजारियों ने तात्कालिक व्यवस्था के तहत किसी दूसरे मंदिर में मंर्तियां सजा दी हों और कालांतर में मंदिर की दिशा आप से आप बदलने की कथा प्रचारित कर दी गई हो।


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6 Responses

  1. बहुत अच्छी जानकारी. परंपरा के साथ तथ्यों की सांगोपाँग विवेचना.

  2. इस लेख को ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।अभी किंवदंतियों पर अधिक आधारित है। इसके प्रमाणिक इतिहास को सामने लाने के लिए पुरातत्व विभाग का भी सहयोग लेना चाहिए।

    1. संभवतः इस विषय में मेरा तथ्यपरक आलेख आपकी नजरों से छूट गया है। यह आलेख Journal of History, Art and Archeology के Volume 1, No. 1, 2021 में छपा था। आपने उसे पढ़ा होता तो आपकी यह शिकायत जाती रहती। मेरा मानना है कि सोशल मीडिया पर लोकरुचि की सामग्री ही बेहतर होती है, जबकि तथ्यपरक गंभीर रचनाओं के लिए जरनल बेहतर है। आशा है आप मेरी बातों से इत्तेफाक रखेंगे।

  3. बढ़िया। इतने विस्तार से नहीं जानता था। आपके साथ ही कभी चलूंगा।