बस की आगे की सीटें लगभग खाली थी, जबकि पीछे की सीटें पूरी तरह भरी हुईं। आगे की तीन पंक्तियों में श्वेत यात्री बैठे थे, जबकि पीछे की पंक्तियों में अश्वेत यात्री। बस में बैठने की व्यवस्था देखकर यह समझना कठिन न था कि मामला भेदभाव का है। चौथी से लेकर दसवी पंक्ति के खाली होने के बावजूद कुछ अश्वेत यात्री खड़े थे। अमेरिका के मॉन्टोगमेरी का कानून ही कुछ ऐसा था। यहां बस की अगली दस पंक्तियां गोरो के लिए आरक्षित थी तो पिछली दस पंक्तियां कालों के लिए। बीच की पंक्तियों पर कोई भी बैठ सकता था। हालांकि अश्वेत उन पंक्तियों में तभी बैठ सकते थे, जबकि कोई श्वेत व्यक्ति खड़ा न हो। अगर कोई गोरा आ जाए तो उन्हें उठना ही होता था। कानून यह भी कहता था कि गोरे और काले दोनो किसी सीट पर साथ-साथ नहीं बैठ सकते। मतलब यह कि अगर 36 पंक्तियों वाली बस में आगे की 26 पंक्तियों में एक भी गोरा बैठा हो तो किसी काले व्यक्ति को उस पंक्ति में बैठने का अधिकार नहीं था।
जी हां, मैं अमेरिका की ही बात कर रहा हूं। 1955 के अमेरिका की। भारत में एक वक्त जैसे जातिगत भेदभाव था, वैसे ही अमेरिका में तब रंगगत भेदभाव था। बल्कि भारत को हम इस मामले में अमेरिका से बेहतर कह सकते हैं क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही भारत के संविधान ने सभी नागरिकों को समान अधिकार एक साथ दे दिए, जबकि अमेरिका में महिलाओं को समान सांवैधानिक अधिकार के लिए 143 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा, और अश्वेतो को तो 189 वर्षो तक। वैसे रंगभेद से भारत का भी परिचय रहा है। आजादी से पहले एक समय रेलगाड़ियों में अंग्रेजों के लिए अलग डिब्बे हुआ करते थे, जबकि तमाम भारतीय, चाहे समाज में उन्हें कोई भी दर्जा प्राप्त हो, गोरों की नजरों में कूली ही थे और वे रेलगाड़ी की तीसरी श्रेणी में ही सफर कर सकते थे। और फिर दक्षिण अफ्रीका को हम कैसे भूल सकते हैं, जहां भारतीय वकील मोहनदास करमचन्द गाँधी को वैध टिकट रहते हुए रेलगाड़ी के ऊंचे दर्जे में बैठने की वजह से ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था।
1 दिसंबर 1955 को अमेरिका के मॉन्टोगमेरी शहर में कुछ वैसा ही हुआ। रोज़ा पार्क्स नामक अश्वेत महिला बस की 11वीं पंक्ति में बैठी थी, जबकि गोरे लोगों का दल बस में दाखिल हुआ। गोरों के लिए आरक्षित सभी दस सीटें भर गई, तब भी कुछ गोरे खड़े ही थे। कानूनन रोज़ा तथा उस पंक्ति में बैठे अन्य काले लोगों को सीट छोड़ने का हुक्म हुआ। शेष अश्वेतों ने तो हुक्म की तामिली की, पर रोज़ा अड़ गई। उसकी यह गुस्ताखी, उसका जुर्म हो गई और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में अदालत में उसे 14 अमेरिकी डालर जुर्माने की सजा सुनाई गई। पर तब तक अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए एक नई जंग छिड़ चुकी थी। 1 दिसंबर 1955 को रोज़ा पार्क्स की गिरफ्तारी के साथ ही अश्वेतों में एक पर्चा बांटा गया कि यह कब तक चलेगा। आज रोज़ा पार्क्स गिरफ्तार हुई है, कल को आप, आपकी बेटी या माँ भी गिरफ्तार होंगे। सोमवार को अदालत में रोज़ा की पेशी है। उस दिन हम इन बसों पर न चढ़ें। अगर हम बसों पर न चलें तो बसें चलनी बंद हो जाएंगी।
इस पर्चे का भरपूर असर हुआ। अगले दिन मॉन्टोगमेरी इम्प्रूवमेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) ने सभा की, जिसमें लोग तो कम ही शरीक हुए, पर उसका प्रचार जबरदस्त हुआ। 3 दिसंबर से ही बसों में अश्वेतों का चलना कम हो गया। 5 दिसंबर के बहिष्कार को सफल करने के लिए लोगों ने चन्दे जुटाए, कार पुलों की व्यवस्था की। जो आवाजाही की अलग व्यवस्था न कर सके, उन्होंने घर पर ही रहने का मन बना लिया। 5 दिसंबर को बसें खाली रहीं। जिन अश्वेतों के पास गाड़ियां थी, उन्होंने अपनी गाड़ी से अनेकों को उनके कार्यस्थल तक पहुंचाया। जिनके पास साइकिल थी, वे साइकिल से ही निकल पड़े, भले ही उन्हें कितनी ही दूर क्यों न जाना था। अश्वेत टैक्सी ड्राइवरों ने तो अपना किराया कम कर के बस जितना ही कर दिया। कुछ गोरे जो अपने नौकरों के बिना एक दिन भी नहीं गुजार सकते थे, अपने अश्वेत नौकरों को लाने के लिए गाड़ी लेकर उनके घर तक गए। बहिष्कार की सफलता से उत्साहित होकर मार्टिन लूथर किंग इतना ही कह सके कि यह तो मानो जादू हो गया।
मार्टिन लूथर किंग (जूनियर), महात्मा गाँधी और उनके अहिंसक आंदोलन से प्रभावित तो थे पर अब वह उसका स्पष्ट असर भी देख रहे थे। उन्होंने फैसला किया कि बसों का यह बहिष्कार आगे भी जारी रहेगा, जब तक कि सभी बस यात्रियों के साथ समान रूप से बर्ताव न किया जाए। उसमें यह माँग भी जोड़ दी गई कि बसों में पहले आओ-पहले पाओ के आधार पर सीटें भरी जाएं तथा बसों के ड्राइवर के तौर पर अश्वेतों की भी बहालियां हो। बहिष्कार को जारी रखने का यह विचार अश्वेतों का संकल्प बन गया और इस बहिष्कार से उन बसों के गोरे मालिकों को भारी आर्थिक क्षति उठानी पडी। परेशान गोरे भड़क उठे और उन्होंने मार्टिन लूथर किंग के घर पर हमला कराया। उन गिरजा घरों को भी निशाना बनाया गया, जहां अश्वेत ही जाते थे। अश्वेतों को जहां-तहां मारा-पीटा जाने लगा।
गुस्से में सैकड़ों अश्वेत मार्टिन लूथर किंग के घर पर जमा हुए, उनसे यह पूछने कि आगे अब क्या करना है। वे आंदोलित थे और कुछ के हाथों में हथियार भी थे। किंग ने उनकी बातें सुनीं और फिर शांत एवं संयत स्वर में उन्हें समझाया, आपके पास हथियार हों तो उन्हे घर रख आइए। हम बदले की कार्रवाई से इस मामले को नहीं सुलझा सकते। हमें उनकी हिंसा का सामना अहिंसा से करना होगा। हम अपने अश्वेत भाइयों से प्यार से ही पेश आएंगे, भले ही वे हमारे साथ जैसा भी सलूक करें। याद रखिए, मुझे रोक दिया गया तो भी यह आन्दोलन अब न रुकेगा क्योंकि ईश्वर हमारे साथ है।
ऐसा लगा मानो अमेरिका की सड़क पर खुद गाँधी ही बोल रहे हों। मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें सजा हुई या तो वे पाँच सौ अमेरिकी डालर जुर्माना भरें या फिर 386 दिनों के लिए जेल जाएं। किंग ने जुर्माना नहीं भरा, बल्कि जेल जाना मंजूर किया। जैसे गाँधी ने 1922 में अदालत को चुनौती देते हुए कहा था कि मुझे अपने बचाव में कुछ नहीं कहना है, और ना ही मुझे अपने किए पर कोई पछतावा है। आप चाहें तो मुझे बड़ी से बड़ी सजा दे सकते हैं, ठीक वैसे ही मार्टिन लूथर किंग ने भी जेल जाते हुए कहा, अगर मैंने अपने लोगों के साथ मिलकर अन्याय के खिलाफ अहिंसक तरीके से लड़ने का अपराध किया है तो मुझे अपने इस अपराध पर गर्व है।
कहने की जरूरत नहीं कि अंततः निरंकुश शासन की हार हुई और अमेरिका में भी गाँधी का अहिंसक तरीका कामयाब हुआ।
बहुत अच्छी जानकारी
सत्याग्रही कभी नहीं हारता।