किसी ने सही कहा है, “मुंडेरों पर खड़े होकर हवा को गालियां देना, कुछ ऐसा हो गया है आज अपने देश का मौसम”.

इस देश में बद और बदनामी के चर्चे जितना जोर पकड़ते हैं, उतना किसी की नेकनामी की बात नहीं होती. अब जब राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल का कार्यकाल पूरा होने चला है, उनके इर्द गिर्द विवादों का तूफ़ान ही खड़ा हो गया है मानो. राजदीप सरदेसाई जैसे वरिष्ठ पत्रकार बोलें तो बोलें, यहाँ तो हरेक नथू-खैरा ही बन्दूक तान कर खड़ा हो गया है. व्यवस्था को गालियां देना आज का फैशन है. जिसके मुंह में जो आता है, बके जाता है.

आज से लगभग पाँच साल पहले जब प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति चुनने की बात सामने आई थी, तब भी यह निर्विवाद सच था कि राष्ट्रपति पद के लिए उनसे अच्छे लोग मौजूद हैं. अव्वल तो कलाम साहब ही थे, जिन्हें दुबारा यह पद दिया जा सकता था, फिर डा० कर्ण सिंह थे, जो अपनी विद्वता और सौम्यता के लिए विख्यात हैं. तब डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी भी एक अच्छा नाम हो सकता था, और फिर शिवराज पाटिल, सुशील कुमार शिंदे आदि के नाम भी चर्चा में तो थे ही. भैरों सिंह शेखावत तो खैर प्रत्याशी ही थे. फिर प्रतिभा पाटिल को ही इस पद के लिए क्यों चुना गया?

इस देश में राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से न होकर अप्रत्यक्ष मतदान से होता है. यानि कि उसे चुनते हैं वे लोग, जिन्हें जनता चुन चुकी होती है. यह बात और है कि जो लोग जनता द्वारा चुने जाते हैं, ज्यादातर वह खुद ही संदिग्ध होते है. अब संदिग्ध लोगों से आप सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आशा करते हैं, तो यह आपकी अपनी समस्या है. सामान्य लोगों को आप चुनें तो ठीक और वे लोग जब अपने बीच से किसी को चुनें तो आप बवाल मचाते फिरें, यह तो कोई ठीक बात नहीं. सामान्य लोगों से यह उम्मीद क्यों कि वे विलक्षण को चुनें? बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पावे?

प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को जब राष्ट्रपति चुना जा रहा था, तब भी उनपर अपने भाई जी०एन० पाटिल को हत्या के मामले में बचाने का आरोप लगा था. उनपर एक सहकारी बैंक खोल कर अपने अपनों का ऋण माफ करने का आरोप तो था ही, जिस के कारण भारतीय रिसर्व बैंक ने उसकी मान्यता ही समाप्त कर दी थी. और फिर अब जब उनका कार्यकाल समाप्ति पर है उनपर विदेश दौरों पर अतिशय अपव्यय करने के अलावा पुणे में भूमि हड़पने तक के आरोप लगाये जा रहे हैं. यह ठीक है कि उन्होंने पुणे में प्रवास का अपना इरादा ही बदल दिया, पर कहने वाले तो अब भी कहते चल रहे हैं कि इसमें उनकी स्वेच्छा कम, मजबूरी अधिक रही. कहने वालों पर तो खैर रोक भी नहीं लगाया जा सकता. जिस देश में विचार की गंभीरता न हो, जहाँ बोलने का सलीका न हो, वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करना तक फिजूल है. वेब पर इस बारे में लोगों की टिप्पणियां देख कर कोफ़्त तो होती ही है, सिर शर्म से झुक जाता है. यदि देश के प्रथम व्यक्ति को हम सम्मान नहीं दे सकते तो हम देश को क्या सम्मान देंगे.

सच वह नहीं होता है जो हम अपनी इन छोटी-छोटी आँखों से देखते हैं, सच वस्तुतः वह होता है जिसे हम अपने अंतरमन से देखते हैं, जिसे हमारी अंतर्दृष्टि देख पाती है. जिन लोगों के पास अंतर्दृष्टि ही नहीं, वे भला सच को क्या समझेगे, सच को क्या जानेंगे? हम तो सियारों की जमात हैं, जो किसी एक दिशा से हुआ-हुआ सुनकर खुद भी हुआ-हुआ करने लग पड़ते हैं, बिना कुछ सोचे, बिना कुछ जाने! वेब पर लिखे जा रहे अनर्गल प्रलाप को देख कर तो कुछ ऐसा ही लगता है!

यदि आपको देश के लिए बढ़िया राष्ट्रपति चाहिए तो उसकी शुरुआत होनी चाहिए बढ़िया सांसदों और विधायकों के चुनाव से. क्या हम इसके लिए तैयार हैं? कितने व्यक्तियों को जनता यह समझ कर चुनती है कि वे योग्य और ईमानदार हैं. कभी उन्हें उनकी जात पर चुना जाता है तो कभी छाप पर. जब जात और छाप ही किसी विधायक या सांसद की जीत का आधार हैं तो फिर यह शिकायत क्यों कि वह जाति के नेता के जूते चमकाते – चमकाते या फिर पार्टी के नेता के लिए चाय बनाते – बनाते ऊँचे पद तक पंहुचा है? जब जनता योग्यता को दरकिनार कर देती है तो फिर किसी राजनैतिक कार्यकर्ता के पास दूसरा विकल्प क्या रह जाता है?

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, पिता और पुत्र के बारे में, जो अपने गधे के साथ यात्रा पर निकले थे. लोगो ने उन्हें देख कर कहा, कैसे बेवकूफ लोग है. पैदल चल रहे हैं. यह नहीं होता कि गधे की सवारी कर लें. यह सुन कर पिता ने पुत्र को गधे पर चढ़ जाने को कहा. लोगों ने देखा तो कहा, कैसे बेवकूफ लोग है. पिता पैदल चल रहा है और बेटा सवारी का मजा ले रहा है. यह सुन कर पुत्र ने खुद नीचे उतर कर पिता को गधे पर सवार हो जाने को कहा. लोगों ने देखा तो कहा, कैसे बेवकूफ लोग है. बेटा पैदल चल रहा है और पिता सवारी का मजा ले रहा है. यह सुन कर पिता-पुत्र दोनों ही गधे पर चढ़ गए. लोगों ने देखा तो कहा, कैसे बेवकूफ लोग है. बेचारे जीव को मार ही देगे क्या? किसी को कहने में लगता ही क्या है? जीतने मुंह, उतनी बातें.

राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के साथ कुछ ऐसा ही नहीं हो रहा क्या? उन्होंने पुणे में रहने की इच्छा व्यक्त क्या की, लोगो की काली नज़रे उनपर लग गयीं. और फिर उन्होंने स्वेच्छा से उसे छोड़ दिया तो भी यह कहने वालों की कमी नहीं कि ऐसा तो उन्होंने दबाव में आकर किया. वह उसे न छोडती तो कोई उनसे छुडा लेता क्या? हम अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति से इतने असहिष्णु हो गए हैं कि किसी की नेकी हमें उसकी मजबूरी दिखती है और उसकी बदी तो खैर बदी है ही.

निश्चय ही प्रतिभा पाटिल जी का व्यक्तित्व कलाम साहेब जैसा नहीं. यह तो हम तब भी जानते थे जब हम उन्हें इस पद पर बैठा रहे थे. यदि तब हमने उन्हें उनके इसी रूप में स्वीकार किया था तो अब यह हाय तौबा क्यों? कानून की पढाई के बाद लोकजीवन में पदार्पण. २७ साल की उम्र में विधायक. दो दशक तक प्रदेश की राजनीति में दखल रखने के बाद राज्यसभा और फिर लोकसभा की सदस्य. राष्ट्रपति बनने से ठीक पहले तक राज्यपाल. यह किसी अयोग्य व्यक्ति की उपलब्धियां तो नहीं हो सकतीं. क्या हमें उनकी उपलब्धियों का आकलन उनकी योग्यता और व्यक्तित्व के आलोक में ही नहीं करना चाहिए? हो तो यह रहा है कि हमने देश की इस पहली महिला राष्ट्रपति को लेकर अपना मंतव्य बना लिया है और अब उसे सिद्ध करने के लिए अपनी दलीलें दे रहे हैं. हमारे इस गढे – गढ़ाए मंतव्य के पीछे क्या महिलाओं के प्रति हमारा पारंपरिक नजरिया नहीं है? फलतः राजदीप सरदेसाई जैसे वरिष्ठ और सुलझे हुए पत्रकार भी उनके कार्यकाल का आकलंन करते हुए बिना जाने-समझे लिख देते हैं कि उन्होंने महिलाओं तक के लिए किया क्या?

यह हो सकता है कि प्रतिभा पाटिल जी के पास कलाम साहेब के समान व्यापक दृष्टिकोण न हो, जो देश के सामने पूरा (PURA) जैसी योजना रख पाए, पर कम से कम महिलाओं के लिए उनकी हमदर्दी, उनका सद्भाव तो कलाम साहेब से बढ़ कर रहा है. लेकिन यह बात स्वीकार करने के लिए मर्द का अहम नहीं, मर्द का जिगर चाहिए. राष्ट्रपति जी ने और कुछ किया हो, न किया हो, इतना तो ज़रूर है कि महिला सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय मिशन की स्थापना में सिर्फ उनकी प्रेरणा ही नहीं, बल्कि उनका हठ भी रहा. लेखक को बखूबी जानकारी है कि केंद्र सरकार जब इसकी स्थापना में ढिलाई बरत रही थी तो उन्हें अपनी उँगली टेढ़ी तक करनी पड़ी. राष्ट्रपति इस सन्तोष के साथ अपने पद से विदा ले ही सकती हैं कि आज यह मिशन कोई वायवी कल्पना मात्र न रहकर राजस्थान से लेकर असम तक में अपनी जड़े जमा चुका है और महिलाओं को इसका लाभ मिलने लगा है. प्रतिभाजी खुद इसकी प्रगति की समीक्षा करती रही हैं. राष्ट्रीय महिला कोष की पुनर्संरचना में भी उनका योगदान रहा है, जो अब देश भर में फैले स्वयं सहायता समूहों को जोड़ने में सफल रहा है.

क्या हम प्रतिभाजी को उन बातों का श्रेय भी नहीं दे सकते, जो उनका प्राप्य है? क्या ऐसा नहीं लगता कि उनके कार्यकाल का जो और जैसा आकलन किया जा रहा है, वह महिलाओं के प्रति हमारे पारंपरिक नज़रिए से आक्रांत होकर किया जा रहा है! उनकी विदेश यात्राओं को ही लें, हमने यह तो देखा कि वे अपने पति को साथ लेकर जाती रही, पर क्या कभी हमने इस बात पर गौर किया कि उनके दल में व्यापारिक अनुष्ठानों के लोग भी शामिल रहे, जिसका अच्छा प्रतिफल देश को मिला. उनके परवर्तियो में के०आर० नारायणन अपनी पत्नी को साथ लेकर चलते थे तब हमने इसपर तो कभी ऐतराज नहीं किया? मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि यहाँ भी हमारे संस्कार आड़े आते है, जो हममें यह सोच भरते है कि देखो यह आदमी अपनी पत्नी के दम पर कैसा इतरा रहा है!

बताया जा रहा है कि राष्ट्रपति की विदेश यात्राओं पर दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के पहले तक 205 करोड़ रूपये खर्च हो चुके थे. यह जानकारी सामने आई सूचना के अधिकार के तहत दाखिल किये गए एक आवेदन के जरिये. सच पूछिए तो मुझे ऐसे आवेदनों के पीछे के इरादों पर ही संदेह होता है. सूचना का अधिकार आज हमारे हाथो में बड़ा हथियार है, पर हम उसका इस्तेमाल कितना सोच-समझ कर कर रहे है, यह देखने और सोचने की बात है. सवाल यह नहीं है कि राष्ट्रपति की विदेश यात्राओं पर कितना खर्च हुआ, बल्कि सवाल यह है कि इन यात्राओं से देश का क्या और कितना हित हुआ. सही सोच के हर व्यक्ति के लिए दूसरा प्रश्न ही अहम होना चाहिए, पर दुर्भाग्यवश, निरर्थक प्रश्नों के बीच सही विवाद दम तोड़ देते हैं. राष्ट्रपति के कार्यकाल का मूल्यांकन करते हुए किसी भी पत्रकार ने इस प्रश्न पर ध्यान दिया होता तो कहीं ज्यादा बड़ी बात सामने आती, बेशक वह राष्ट्रपतिजी के विरूद्ध ही क्यों न जाती.

किसी भी व्यक्ति का सही मूल्यांकन उसकी खामियों के साथ ही हो सकता है. अपनी खामियों और कमियों से ऊपर उठकर वह क्या और कितना कर पाया, यही उसकी सही परख है. राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की परख उसी तरह से होनी चाहिए.

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2 Comments

  1. dhanyavad – nispakchh evam swasth chintan ke liye, Kash – eesi tarah ka chintan iron man sardar patel ke sambandh me bhi hoti jo poornatah desh ke liye samarpit the, parantu yah bharat desh hai, yahan virodhiyo ki kami nahin hai.

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