अब तो अति की भी अति हो चुकी। हद भी अपनी तमाम हदें पार कर चुका। संसद भवन के बाद मुंबई, फिर पठानकोट और अब उरी। जबकि हम हैं कि योगी बने बैठे हैं। धुनी जमाए हुए हैं। सही समय का इंतजार कर रहे हैं। सही जगह के चुनाव में लगे हैं। अगर सही समय आना होता तो 13 दिसम्बर 2001 को जब लश्कर-ए-ताइबा ने हमारी संसद को निशाना बनाया था, तभी वह आ चुका होता। अगर सही समय आना होता तो  26 नवंबर 2008 को जब उसी लश्कर-ए-ताइबा ने मुंबई पर हमला किया था, तभी वह आ चुका होता। यदि सही समय आना होता तो 2 जनवरी 2016 को जब जैश-ए-मोहम्मद ने पठानकोट स्थित वायुसेना केन्द्र पर धावा बोला था, तभी वह आ चुका होता। दुश्मन हमारी संप्रभुता को लगातार ललकार रहा है, हमारे सम्मान पर बराबर चोट कर रहा है, हमारी अस्मिता को खुलेआम चुनौती दे रहा है, और हम सही समय के इंतजार में हैं। जाने कब नौ मन तेल होगा, और कब राधा नाचेगी?

अमेरिका को बेशक दस साल लग गए हों वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के मुख्य किरदार ओसामा बिन लादेन को उसके ही गढ़ में घुसकर मारने में, पर इस बीच अमेरिकी नागरिकों को कभी ऐसा नहीं लगा कि उनका देश  किसी तरह से कमजोर है या फिर आतंक के आगे घुटने टेकने वाला है। क्या हम भारतीय भी ऐसा सोच सकते हैं? क्या हम ऐसी नस्ल हो चुके हैं जिसने अपने घावों को सहलाकर आनन्द लेना सीख लिया है? नरेन्द्र मोदी ने जब लोकसभा चुनावों के पहले ललकारते हुए कहा था कि ‘अगर दुश्मन हमारे एक जवान का सिर काटेगा तो हम उसके दस जवानों के सिर काट लाएंगे’ तो लोगों में उम्मीद जगी थी। मोदीजी ने जब घोषणा की थी कि ऐसा करने के लिए उन जैसी 56 इंच की छाती चाहिए तो लोगों ने उनमें राष्ट्रनायक की छवि देखी थी। जनता ने उन्हें भारी बहुमत देकर दिल्ली की कुर्सी पर बैठा दिया, लेकिन हुआ क्या? पैसा हजम, तमाशा खतम। सारी बातें चुनावी जुमलों की तरह दरकिनार कर दी गई।

रजनीकान्त के हाथों गुण्डों को पिटता देखकर तालियां बजाने वाली कौमों को कतई फर्क नहीं पड़ता कि 65 साल का यह अधेड़ तो अपनी बेटी की शादी तक नहीं बचा पा रहा, फिर उन्हें क्या बचाएगा। इस देश की जनता तो महज फंतासी में ही जीती है। 70 सालों की आजादी ने जनता को अफीम चटाने का काम ही तो किया है। अब उसके शरीर पर चाहे कितनी ही मक्खियां भिनकें, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जब कोई वीर रस का कवि अपने शब्द जाल में दुश्मनों के छक्के छुड़ा देता है तो हमारे आहत मन को बड़ा ही सुकून मिलता है। कुछ देर के लिए वह खुद को वैसा ही ऊर्जावान महसूस करता है, जैसा कि वह किसी अश्लील साहित्य को पढ़कर करता है। हमारे लिए मदारी के करतब और नेता के बयान में कोई फर्क नहीं रह गया है। दोनों ही हमें सिर्फ मजा देते हैं। जब 56 इंच की छाती जतलाने की बजाय, 56 इंच की छाती बतलाने से काम चल जाता हो तो फिर कोई क्यों खुद को परीक्षा से गुजारना चाहेगा?

देश ने कांग्रेस से उम्मीद नहीं की थी कि वह एक के बदले दस सिर काट लाएगी। यह उम्मीद उसने नरेन्द्र मोदी से की है। हमने मनमोहन सिंह में 56 इंच की छाती नहीं देखी थी, वह हमने नरेन्द्र मोदी में देखी है। इसलिए उत्तरदायित्व भी उनका है। कल क्या हुआ, क्या नहीं, इससे आज को मतलब नहीं । देश अब उरी में शहीद हुए सैनिकों का हिसाब मांग रहा है। मोदीजी किस सोच में पड़े हैं, यह तो वही जानें। उन्होंने जो जोश-खरोश की बातें प्रधानमंत्री बनने से पहले कही थी, वह उनके कार्यों में और उनकी नीतियों में दिखाई देनी ही चाहिए। अन्यथा समय का इंतजार तो पिछली सरकारें भी करती रही थीं। जीवित कौमें समय के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठी नहीं रहतीं, समय की धारा को अपने हिसाब से मोड़ दिया करती हैं। समय आ गया है कि हम अपने जीवित होने का प्रमाण दें क्योंकि अब तो वाकई हद की भी हद हो चुकी है।

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