51 दिनों के बाद आखिरकार कश्मीर में कर्फ्यू हटा दिया गया। हालांकि मामला शान्त हो गया है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। कर्फ्यू के हटाए जाते ही श्रीनगर के बटमालू में फिर से प्रदर्शन शुरु हो गए। ऐसे में वहां फिर से कर्फ्यू लगाना पड़ा। पिछली 8 जुलाई को बुरहन वानी के मारे जाने के बाद से ही वहां अशांति बढ़ गई है। इसके बाद विरोध प्रदर्शनों का दौर चल पड़ा। महिलाएं और स्कूली बच्चे भी सड़कों पर निकल आए। पुलिस पर पथराव भी हुए। मामले से निबटने की कोशिश में सुरक्षा बलों की गोली से कुछ बच्चे मारे गए, जबकि अनेक गंभीर रूप से घायल हुए। विरोध प्रदर्शन तेज होता गया और आखिरकार कर्फ्यू लगाना पड़ा।
निश्चय ही कश्मीर बराबर से ऐसा नहीं था। एक समय यहां कितना उत्साह हुआ करता था सैलानियों में कि वादी के न जाने किस कोने में धर्मेन्द्र और हेमा रूमानी अदा में हाथ में हाथ डाले घूमते मिल जाएं, पहाड़ों की न जाने किस चोटी पर शम्मी अपनी कमर लचकाते दिख जाएं और न जाने किस शिकारे पर शर्मिला अपनी आँखें मिचमिचाती नजर आ जाएं। किसी अम्बेसडर गाड़ी पर यदि झिलमिल परदा लगा दिख जाता तो सैलानी उसके पीछे भागते-फिरते कि क्या पता इसमें से साधना का चेहरा झलक जाए। बंबइया फिल्म निर्माता स्विटजरलैंड नहीं जाकर कश्मीर जाते थे। अब कितना बदल गया है सब। जमीं पर जो जन्नत का एहसास कराता था, वह अब दोज़ख की शक्ल लेता जा रहा है।
वैसे तो कश्मीर पर पाकिस्तान के नापाक इरादे 1947 में ही साफ हो गए थे, जब कबालियों के भेष में वह यहां घुस आया था, पर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को गंवा देने के बाद से उसने यहां छाया युद्ध की रणनीति अपनाते हुए आतंकवाद को बढ़ावा देना शुरु कर दिया। और फिर 1989 में रूबैया सईद के अपहरण के बाद से तो आतंकवाद ने अपना फन ही काढ़ लिया। रूबैया तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी थीं, जो बाद में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हुए। अभी उनकी दूसरी पुत्री यानी रूबैया की बहन महबूबा मुफ्ती यहां की मुख्यमंत्री हैं। बहरहाल, 2010 में हालात पर कुछ हद तक काबू पा लिया गया और एक बार फिर वादी-ए-कश्मीर फूलों की खुश्बू से लबरेज होने लग पड़ी। और अब हालात फिर से बिगड़ रहे हैं, बिगड़ते ही जा रहे हैं।
ऐसे में मुझे वहां के वरिष्ठ पत्रकार स्व0 पी0एन0 जलाली की कही बात याद आ रही है। मैं 1995 में ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान पर फिल्म बना रहा था, जो 1948 में पाकिस्तान से लड़ते हुए झंगड़ में मारे गए थे। तभी मेरी मुलाकात जलाली साहब से हुई थी। 1948 की एक घटना को याद करते हुए उन्होंने हमें बताया था 1948 के शुरुआती दिनों में घाटी का कोई बेकसूर नौजवान भारतीय फौज की गोली का शिकार हो गया। इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। आनन-फानन में हजारों लोग आक्रोश की मुद्रा में लाल चौक पर उमड़ पड़े। भारतीय फौज के खिलाफ वापस जाओ-वापस जाओ के नारे लगाए जाने लगे। कुछ नेताओं ने समझाने की कोशिश की, पर लोग किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं थे, यहां तक कि तत्कालीन जननेता शेख अब्दुल्ला तक की नहीं। वहां खड़ा बस के ऊपर लाउडस्पीकर लगाकर उसे फौरी तौर पर मंच बना दिया गया था। उसी पर सवार होकर नेतागण लोगों को समझाने की कोशिश में लगे थे, पर भीड़ थी कि शांत होने की बजाय उग्र ही होती जा रही थी।
इसी बीच एक बुजुर्ग भीड़ को चीरते हुए बस तक आए और उसपर चढ़ने लगे। लोगों ने रोका तो वह बोले – मैं सबों से बात करना चाहता हूं। मुझे ऊपर जाने दें। उनके विश्वास को देखकर शेख साहब ने उन्हें ऊपर बुला लिया। ऊपर पहुंचकर उन्होंने शेख साहब के हाथों से माइक ले ली और बोलने का उपक्रम किया। जो लोग शेख अब्दुल्ला को सुनने के लिए नहीं तैयार थे, वह भला उन्हें क्या सुनते। बुजुर्ग ने सख्ती से कहा – आप सब जरा शांत हो जाएं और मेरी बात सुनें। लोगों ने फब्ती कसी – क्यों सुनें हम आपको। आप हैं कौन?
मैं? मैं उस लड़के का बाप हूं जिसकी मौत पर आप तमाशा कर रहे हैं।
इसके बाद वहां सबों को मानो सांप सूंघ गया। लोग पूरी तरह स्थिर और शांत हो गए। इतने शांत कि लाउड स्पीकर पर उन बपजुर्ग की सांसों की आवाज सुनी जा सकती थी। बुजुर्ग ने कहना जारी रखा – जी हां, मरने वाला मेरा ही बेटा था जनाब। मैं उसका बदनसीब बाप हूं। बावजूद मैं यहां से हिन्दुस्तानी फौज को जाने के लिए नहीं कहूंगा। मेरा जो नुकसान होना था, वह तो हो चुका। यह ठीक है कि उनकी एक बेगानी गोली से मेरा बेटा शहीद हो गया, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी गोलियों ने हमारे कितने बेटों की जान बचाई है और कितनी बहू-बेटियों को दागदार होने से बचा दिया है।
इसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। शेख साहब ने उन बुजुर्ग को सहारा देकर वहीं बैठा लिया और भीड़ चुपचाप छितर गई। अपना इतना विश्वास दिया था कश्मीरियों ने तब भारतीय फौज को। हालात आज वाकई बहुत बदल गए हैं। सुरक्षा बलों की गोलियों से आज यदि कोई मरता है तो लोग उसी तरह गुस्से से सड़कों पर निकल आते हैं, पर आज उन्हें समझाने वाला कोई नहीं है, जबकि भड़काने वालों की कमी नहीं। (रंजन कुमार सिंह, सरहद जीरो मील: पृष्ठ 71-72)