जंगल में भालू, बिहार में लालू
टीवी प्रोग्राम का होस्ट होना उनकी किस्मत में न था
उन्हें भीतर आता देख मैं अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मुझे देखते ही उनकी बाछें खिल गई। उन्हें जरा भी उम्मीद नहीं थी कि मैं उनसे पहले पहुंचकर उनका इंतजार करता मिलूंगा।
मैंने अपने सामने की खाली कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा, आईए बैठिए झूलन बाबू। मैंने आपसे आज मिलने का वादा किया था तो देखिए समय पर हाजिर हो गया।
लगा कि जैसे वे मेरे चरणों पर गिर पड़ेंगे। मैंने उन्हें गले से लगाया और फिर उन्हें बैठाते हुए खुद भी बैठ गया।
अब भी उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। बोले, आप चुनाव लड़ने की तो नहीं सोच रहे?
क्यों? ऐसा क्यों लगा आपको?
सच-सच बताएं। आदत नहीं है हमको झूलन बाबू कहलाने का। चुनाव के चुनाव हम झूलन बाबू हो जाते हैं और नहीं तो फिर झूलनवा ही रहते हैं।
नहीं भाई, मेरा कोई इरादा नहीं है चुनाव लड़ने का। तीन-तीन चुनावों का अनुभव ही बहुत है। अब जिन्दगी की गाड़ी पटरी पर वापस आ गई हो तो उसे डिगाने का कोई मतलब नहीं।
जानते हैं, रंजन बाबू, आपके साथ अच्छा नहीं हुआ।
मुझे उनकी बात समझ में न आई। मेरी सवालिया नजरों को भांपकर उन्होंने आगे कहा, आपने ही नहीं, आपके बाप-दादा ने भी औरंगाबाद के लिए बहुत किया है लेकिन औरंगाबाद आपका कीमत नहीं बूझ पाया। इस बार आप चुनाव लड़ते तो औरंगाबाद को भूल सुधारने का मौका मिल जाता।
मैंने ध्यान से उनकी तरफ देखा। उनकी आंखों में मुझे सच्चाई तैरती दिखी। हां, अब बहुत से लोग जिले में हैं ऐसे जो चाहते हैं कि मुझे अपना प्रतिनिधि बना कर संसद या विधानसभा में भेजें। उन्हें लगता है कि उनकी कृपा से अब तक जो सांसद या विधायक बने हैं, उन सबने जनता का कम और अपना हित ही अधिक साधा। पर सचमुच, अब मेरी रुचि जरा भी चुनावी राजनीति में नहीं। जहां हूं, खुश हूं और वहीं से जनता से जुड़े मसलों पर सार्थक हस्तक्षेप करने का माद्दा और हौसला रखता हूं।
मैंने इस बात को टालते हुए कहा, छोड़िए इन बातों को। बताइए, आप क्या लेंगे? चाय या कॉफी?
एक बात बताएं, रंजन बाबू। आपको तो शायद ही याद होगा पर आपके यहां हमने और हमारे दोस्तों ने सत्तुआन से लेकर चूड़ा-दही तक जम कर मनाया-खाया है। और मेरे पिताजी बताते हैं कि आपके यहां पहुंचने पर आपके पिताजी बिना खाना खिलाए जाने न देते थे। और फिर आपके दादा जी के दावतों का चर्चा तो गाँव-घर में आज भी होता है। तो हम कहना ई चाहते हैं कि हमने आपका खूब नमक खाया है, अब हमें सेवा का मौका दीजिए।
घबराइए नहीं, चाय-कॉफी में नमक नहीं होता। इसलिए कुछ और नमक आपको नहीं खिलाउंगा। आप लोगों का स्नेह और अपनापन हमें मिलता रहा है, यह इसी तरह आगे भी मिलता रहे, हमारे लिए इतना ही बहुत है। यह कहते हुए मैंने बेयरे को बुलाकर दो कॉफी लाने को कह दिया।
तो आज लालू वाला कहानी सुनने को मिलेगा न?
बिलकुल, मैंने कहा और बिना दाएं-बाएं किए शुरु हो गया, साल-महीना तो याद नहीं पर बात उस समय की है जब टीवी पर शेखर सुमन का प्रोग्राम खासा लोकप्रिय था। कौन बनेगा करोड़पति के पहले सीजन की सफलता को देखकर उसके दूसरे सीजन का ऐलान किया जा चुका था। पर मैं आपको यह क्यों बता रहा हूं पहले। पहले को मुझे यह बताना चाहिए कि वह समय था जब मैंने नवभारत टाईम्स की नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। तब मुझपर चुनावी राजनीति का भूत सवार था और लोगों की बात मानकर औरंगाबाद की जनता के ज्यादा करीब रहने के इरादे से दिल्ली छोड़कर पटना में रहने लगा था। पर जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ तो करना था। कहते हैं ना, बिल्ली के भाग से छींका टूटा, सो ठीक तभी बिहार में ईटीवी का पदार्पण हुआ।
अंधे को क्या चाहिए दो आँखें। इससे पहले नवभारत में रहते हुए मैंने टीवी के लिए कुछ काम किए थे। अमर शहीद ब्रिगेडियर उस्मान पर फिल्म बनाई थी। इसके अलावा कश्मीर पर दो-तीन फिल्में बना चुका था। नागा रेजिमेंट पर भी मेरी फिल्म आ चुकी थी। सो, ईटीवी को मैंने आमने-सामने नाम से एक टीवी प्रोग्राम का प्रस्ताव भेजा और उन्हें यह आईडिया भा गया। आधे घंटे के इस प्रोग्राम में राजनीति, समाज, साहित्य, संस्कृति आदि से जुड़े बिहारियों से खास बातचीत की जानी थी। ईटीवी बिहार ने आमने-सामने की 52 कड़ियां बनाने का करार मुझसे कर लिया।
बात बेहद पुरानी हो चुकी, इसलिए अब क्रम से तो याद नहीं पर बिहार के अनेक सपूतों को हमने इस कार्यक्रम में बातचीत के लिए बुलाया। इसमें से कई तो तब संघर्ष पथ पर ही थे पर आज बड़े नाम हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो तब बेहद चर्चित थे, जबकि आज याद करना पड़ता है कि वे हैं भी या नहीं। इनमें सुशील मोदी, रवि शंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी, पप्पू यादव, साधु यादव, सुभाष यादव, सुखदा पाण्डेय, पायलट बाबा, व्हाई0के0 सुदर्शन (अब के सुदर्शनाचार्य जी), जय प्रकाश यादव, राजन तिवारी जैसे लोग शामिल थे।
उन्होंने मुझे बीच में ही टोका, आमने-सामने में आप थे? हमको काहे याद पड़ता है कि ई प्रोग्राम माया वाले विकास जी चलाते थे।
हां, आपको बहुत सही याद है। इस कार्यक्रम के ऐंकर विकास झा ही थे। मैं ही उन्हें लेकर आया था। दरअसल, मैं कैमरे के पीछे का आदमी हूं, प्रोड्यूसर-डायरेक्टर। आसने-सामने की गेस्ट लिस्ट बनाने से लेकर उनके बारे में पूरा रिसर्च कर के सवाल तैयार करना, उन्हें समय पर स्टूडियों में लेकर आना ताकि समय बर्बाद न हो, बातचीत के लिए कितने कैमरे लगाए जाएंगे और कहां-कहां उन्हें रखा जाएगा, यह सब सोचना मेरा काम था। मुझे आज भी याद है कि जब हमने पप्पू यादव और राजन तिवारी से बातचीत की, तब दोनों जेल में थे। उन्हें जेल से निकाल कर स्टूडियो तक लाना ही चुनौती थी, पर मैंने और मेरी टीम ने भली-भांति इन सब को अंजाम दिया।
उन्हें मेरी बातों में रुचि हो रही थी। मैंने आगे कहा, आपको क्या लगता है अमिताभ बच्चन खुद से कुछ बोलते हैं। कौन बनेगा करोड़पति में भी उनके डायलॉग कोई और तैयार करता है और फिर उनके कपड़े से लेकर उनके मेकअप तक का पूरा इंतजाम कैमरे के पीछे ही तो रहता है।हां, यह तो हम जानते हैं, पर आमने-सामने में आप थे, यह नहीं जानते थे। पर ई बताइए, आपने सुभाष से लेकर साधु तक का नाम गिना दिया, पर उस समय के सबसे चर्चित आदमी लालू का नाम ही खा गए, जबकि हम तो बैठे हैं उनका ही कहानी सुनने को। ऊ इसमें नहीं थे का?
हां, वह इसमें नहीं थे, मैंने मुस्कराते हुए कहा, यही तो कहानी है!
लालू के कहानी में लालू ही नहीं था, ई बात कुछ समझ में नहीं आया।
आप जल्दी ही समझ जाएंगे। कहानी को बढ़ने तो दीजिए।
ठीक है, बोलिए, यह कहते हुए उन्होंने अपने सामने रखी कॉफी की प्याली को मुंह से लगाया। उनकी देखा-देखी मैंने भी प्याली उठाई तो पाया कि कॉफी तलछट में भी नहीं है। इस बीच कब बेयरा हमारे सामने कॉफी रख गया, और कब मैं उसे बातचीत करते-तकते पूरा सुड़क गया, पता ही न चला। मैं तो खेर वैसे भी जल्दी कॉफी पी जाता हूं पर देखता क्या हूं कि उनकी कॉफी भी खत्म हो चुकी थी और उन्हें भी इसका पता अब लग रहा था।
और कॉफी मंगवाऊं, मैंने पूछा।
उन्होंने अपना सिर हां में हिलाया या ना में, इसका पता न चल सका पर मैंने तत्काल और कॉफी का आर्डर दे डाला।
मैं कथा क्रम को फिर से बढ़ाता कि उन्हें कुछ और याद आ गया. अच्छा, लालू तो नहीं था पर हमको खूब याद है कि उसमें छोटे साहब थे। आप उनका नाम भूल गए?
वाह भाई, मान गए। आपको सही-सही याद है, मैंने उनकी याददाश्त की तारीफ करते हुए उनके कहे की पुष्टि की और फिर कहा, सत्येन्द्र बाबू का इस कार्यक्रम में होना एक अलग ही कहानी है। लालू के होने की कहनी जितना ही मजेदार है, छोटे साहब के होने की कहानी। पर इसपर कभी बाद में।
हां, हां, लालू वाला कहानी ही सुनाइए। या कि उसके नहीं होने वाला कहानी!
दरअसल, लालू जी को मैंने जानबूझ कर इस कार्यक्रम से बाहर रखा। सुभाष जी को, साधुजी को, जयप्रकाश जी को, पप्पू जी को बुलाकर मैंने यह जता दिया कि मुझे न तो उनके लोगों से परेशानी है और ना ही उनकी जाति के लोगों से परहेज। पर मेरे लिए मौका है उन्हें शामिल न करने का तो मैं इस मौके का उपयोग तो करूंगा। इस बीच लालू जी को बुलाने के लिए मुझ पर चैनल का दबाव भी बढ़ता रहा, पर मैं कुछ न कुछ तर्क गढ़कर इसे टालता रहा।
पर लालू को न बुलाने का कारण तो होगा? उसने आपका टिकट काट दिया तो बस आपने भी उसे काट दिया, ऐसा था क्या?
नहीं, ऐसा नहीं था। हालांकि यह सच है कि उन्होंने मेरा टिकट काट दिया था पर मैं पत्रकार हूं और पत्रकारिता में स्वार्थ से बढ़कर तथ्य होता है। और निस्संदेह उस समय का सच यह था कि लालू सबसे लोकप्रिय नेता थे और लोग उनको सुनना चाहते थे। न केवल उनके समर्थक, बल्कि उनके आलोचक भी उनके कहे में रस लेते थे। ऐसे में लालू जी के शामिल होने से आमने-सामने की लोकप्रियता में भारी बढ़ोत्तरी होती। यह बात चैनल तो समझता ही था, मैं खुद भी समझता था।
फिर?
फिर क्या, जो राम रचि राखा। जैसा कि मैं आपको शुरु में बता रहा था, वह समय था जब टीवी पर शेखर सुमन की धूम थी। वह अपने कार्यक्रम में सिलेब्रेटी से बातचीत करते थे और वह भी बड़े ही रोचक अंदाज में।
इसी दरम्यान बिहार में विधानसभा के चुनाव हुए और नीतीश कुमार को जबरन मुख्यमंत्री बना दिया गया। इससे पहले राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं। लालू जी को हटना पड़ा था क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला था पर अपनी पत्नी के जरिये सत्ता पर वही काबिज थे। बहरहाल, मैं दिल्ली के सैलून में बाल कटा रहा था और वहां टीवी पर समाचार चल रहा था। नीतीश जी के मुख्यमंत्री बनाए जाने पर रिपोर्टर ने लालू जी से सवाल किया, अब क्या होगा? और उन्होंने अपने चिर-परिचित नाटकीय अंदाज में कहा, होना क्या है! यहां का एक-एक पेड़-पत्ता कह रहा है कि जो हुआ गलत हुआ, आप देख लीजिएगा, सरकार तो हमारा ही बनेगा। इसके कुछ देर के बाद सैलून में कोई और दाखिल हुआ और सैलून के मैनेजर ने उससे कहा, मिस कर गए आप। थोड़ा पहले आते तो मजा देखते। आप विश्वास करें, आगंतुक ने छूटते ही पूछा, लालू ने कुछ बोला क्या?
तब तक परदे पर लालू नहीं, बस चुनाव का संदर्भ था और ना ही यहां किसी ने लालू का नाम लिया था, पर मजे की बात से आगंतुक ने समझ लिया हो न हो, लालू ने कुछ कहा होगा।
मुझे लगा कि टीवी पर शेखर सुमन का काट मिल गया। उधर सोनी टीवी भी दोबारा से केबीसी लाने का ऐलान कर चुका था। ऐसे में स्टार टीवी को उनके टक्कर के कार्यक्रम की तलाश थी। मैंने तत्काल उनसे बात की और वे इसके लिए झटपट तैयार हो गए। पर उन्हें भरोसा नहीं था कि लालू जी इसके लिए तैयार होंगे।
मैंने बिना वक्त गंवाए लालू जी से संपर्क करने की कोशिश की। अनेक बार उनके आफिस में फोन करने के बाद भी किसी ने उनसे बात तक नहीं कराई, भेंट कराना तो दूर की बात। इस बीच लालू जी की बात सही साबित हुई थी और सात दिनों में ही नीतीश जी को पद छोड़ना पड़ा था और राबड़ी जी फिर से बिहार की मुख्यमंत्री बन गई थीं। और मुझे लालू जी का समय मिलना मुश्किल हो रहा था।
मैंने पैंतरा बदला और इस बार खुद समय मांगने की बजाय पटना की यूनीवार्ता में कार्यरत अपने छोटे भाई शिवाजी से मैंने मदद मांगी। वह लालू जी से समय लेकर मुझे अपने साथ ले चलने के लिए तैयार हो गया। बिना देरी के उसे समय मिल भी गया और सुबह-सुबह हम दोनों लालू जी के आवास पर जा पहुंचे।
खुद लालू जी से किसी को मिलना हो तो उसकी एंट्री उनके बेडरूम तक हो जाती है और उसे उनके बेड तक पर आदरपूर्वक बिठाया जाता है, पर किसी को उनसे मिलना हो तो उसके बैठने के लिए बाहर बरामदे तक में कुर्सी नहीं होती। हम जब वहां पहुंचे तो देखा कि लालू जी अपनी गायों के दाना-पानी में लगे हुए हैं। एक मेज और उसके साथ एक ही कुर्सी रखी है, जिसपर जाहिर तौर पर लालू जी बैठते हैं। हम दोनों कुछ देर तक यूंही खड़े रहे पर लालू जी ने हमारी तरफ देखा भी नहीं। या यूं कहूं कि उन्होंने जब मुझे भी देख लिया तो अनदेखी का नाटक करने लगे। जो भी हो, खाली कुर्सी देखकर मैं तो उस पर बैठ गया।
लालू जी के लोगों ने सतर्क किया, ये साहब की कुर्सी है।
मैंने भोलापन दिखाते हुए कहा, ठीक है। वह आएंगे तो हम उठ जाएंगे।
दरअसल, अब मैं पूरी तरह निडर हो चुका था। जानता था कि मेरा जितना बुरा वह कर सकते थे, उतना बुरा वह कर चुके थे। जब वी0पी0सिंह जी के कहने बाद भी उन्होंने मेरा टिकट काट दिया तो उसके बाद मेरे लिए खोने को बचा क्या था। इस बीच लालू जी हमारी तरफ कनखियों में जरूर देखते रहे होंगे पर वह हमारी तरफ आए नहीं। जब उनके लोगों ने समझ लिया कि मैं यूं उठने वाला नहीं तो वे दो कुर्सियां लेते आए। वैसे तो सभी बेंत की ही कुर्सियां थीं और उनमें किसी तरह का अंतर न था, फिर भी मैं अपनी कुर्सी से उठकर दूसरी कुर्सी पर जा बैठा और पहली वाली कुर्सी छोड़ते हुए बोला, लीजिए आपके साबह की कुर्सी।
बेचारे लालू जी भी गायों के साथ कितना समय बिताते, सो वह हमारी तरफ बढ़ आए। और फिर मुझे लगभग नजरअंदाज करते हुए शिवाजी से पूछा, का हाल बा हो?
ठीक हैं। इनको तो जानते ही होंगे, मेरी तरफ इशारा करते हुए शिवाजी ने कहा।
मैं भी खड़ा हो गया था। लालू जी ने अपनी कुर्सी पर बैठकर मेरी ओर देखा और पूछा, कोई काम है का?
उनके बैठने के बाद मैं भी अपनी कुर्सी पर बैठ रहा। इस बीच एक बड़ा ही मजेदार काम हुआ था, जिसपर मेरा ध्यान अब गया। मैं जब लालू जी की कुर्सी को छोड़कर दूसरी कुर्सी पर बैठ गया तो लालू जी के लोगों ने उनकी कुर्सी को जरा ठीक से रख दिया। इससे मेरी और लालू जी की कुर्सी आसने-सामने थी और मेज बीच में। मेरे बैठते ही उन्होंने अपने पैर मेज पर रख दिए और मैं सीधा उनके पांवों के सामने आ गया। इस स्थिति को समझ कर मैंने थोड़ा उठकर अपनी कुर्सी लालू जी के बगल में सरका ली जिससे उनके पैरों के सामने से मैं हट गया।
मैंने महसूस किया कि झूलन जी को मेरी बातों में रस आ रहा था और कॉफी की घूंट लेने के लिए भी रुकता था तो वे आगे की बात सुनने के लिए अधीर हो उठते थे।
मैंने कहानी जारी रखते हुए कहा, कुर्सी सरका चुकने के बाद मैंने लालू जी से कहा, आज कुछ मांगने नहीं, आपको कुछ देने आया हूं।
अपने पैरों को मेज से हटाते हुए उन्होंने मेरी तरफ देखा और मैंने बिना समय गंवाए सीधा-सीधा कह दिया, हम आपको स्टार टीवी पर एक कार्यक्रम का होस्ट बनाना चाहते हैं। उम्मीद है कि आपको यह मंजूर होगा।
जाहिर तौर पर लालू जी ने ऐसी कोई उम्मीद भी न की थी। मेरी तरफ झुककर उन्होंने पूछा, हमको करना क्या पड़ेगा।
वही जो शेखर सुमन करते हैं टीवी पर। लोगों से बातचीत।
यह सुनकर वह सीधा बैठ गए। भ्रष्टाचार के मामले में वह इस तरह फंसते जा रहे थे कि बहुत लोग तो उनसे कटने भी लगे थे। शायद यही सोच कर उन्होंने मुझसे अगला सवाल किया, पर हमसे बात करेगा कौन?
लालू जी बहुत लोग तो आपके बुलाने पर ही आ जाएंगे और जो नहीं आना चाहेंगे उन्हें हम बिठा देंगे आपके सामने। बस आपको अपने अंदाज में ही उनसे बात करनी है, मैंने समझाते हुए कहा।
ठीक है तो हम तैयार हैं। एक काम कीजिए, प्रपोजन बनाकर हमें दे दीजिए।
यह सुनकर मैं खुश हो गया। और फिर सुबह की चाय पीकर ही मैं और शिवाजी उनके घर से लौटे।
झूलन जी को यह कहानी, कहानी ही लग रही थी और उसपर मेरा यह कहना कि हम चाय पीकर वहां से निकले, उन्हें जमा नहीं था।
मैंने उन्हें बताया कि तब मैं चाय पी लेता था जरा-मरा। अब जैसा नहीं था कि मुंह से लगाता तक नहीं। पर बात आगे की सुनिए। मैंने चैनल से बात कर के उन्हें प्रवोजल दे दिया। उसमें यह तो था ही कि उन्हें करना क्या है, यह भी था कि इसके लिए उन्हें कितने पैसे दिए जाएंगे।
पर तभी एक बड़ा खेल हो गया। मेरे हमनाम रंजन यादव तब लालू जी के साथ थे और लालू जी उनके कहने में थे। रंजन यादव और मेरी पटरी कभी नहीं बैठी। ऊपर से उनका मेरे पिता से भी कोई अच्छा रिश्ता न था जबकि दोनों ही साथ-साथ राज्यसभा के सदस्य बने थे। जाने सच क्या है पर मुझे बताया गया कि मेरा टिकट कटवाने में तो उनका बड़ा हाथ था ही, इसे भी काटने में वह लग गए। पर चूंकि लालू जी टीवी कार्यक्रम करने का मन बना चुके थे, इसलिए उन्हें मेरी तोड़ के लिए किसी और को लाना पड़ा। तब रंजन यादव ने एक स्वनामधन्य पत्रकार की मुलाकात लालू जी से कराई और तय हुआ कि मेरा कार्यक्रम करने की बजाय वह उनका कार्यक्रम करेंगे।
तो क्या आपका कार्यक्रम छोड़कर उन्होंने वह किया? झूलन जी को यह जानने की उत्सुकता हुई।
अरे कहां, अगर किया होता तो आप उसे देखते नहीं, मैंने कहा।
फिर?
फिर क्या, तकदीर भी कुछ होती है। मेरी तकदीर में लालू जी का प्रोग्राम न था और लालू जी की तकदीर में टीवी प्रोग्राम ही न था।
रंजन बाबू, आप तो रहस्य पर रहस्य खड़ा करते जा रहे हैं। जल्दी बताइए, हुआ का आखिर?
मैंने कहा, होना क्या था। उन पत्रकार को सहारा टावी चैनल में नौकरी मिल गई और उन्होने चाहा कि लालू जी का कार्यक्रम सहारा टीवी पर ही चल जाए पर लालू जी इसके लिए तैयार न हुए। कहां स्टार टीवी और कहां सहारा टीवी। फिर लालू जी के यहां से मुझे किसी भोला जी का फोन आया कि एक बार आकर साहब से मिल लीजिए। पर एक बार मेरे हाथ जल चुके थे सो अब और छकना नहीं चाहता था। स्टार टीवी पर मेरी जो प्रतिष्ठा गिरनी थी सो तो गिरी ही। अब नए सिरे से उनपर ऐतबार करना मेरे लिए मुश्किल था।
सब कुछ बूझते हुए झूलन जी बोले, इसीलिए आपने फिर मौका पड़ने पर लालू को आमने-सामने से काट दिया?
मैंने कहा, आप कह सकते हैं कि मैंने जैसे को तैसा किया पर मैं मानता हूं कि जिसमें पेशेवर ईमानदारी न हो, उसे मीडिया के पेशे से जोड़ना ठीक नहीं।
पर आपने चैनल वालों को कैसे समझाया?
कहां समझा पाया? जब मुझपर लालू जी को लाने के लिए चैनल का दबाव बढ़ने लगा तब मैंने प्रेस को बुला कर कह दिया कि मेरे रहते लालू जी की एंट्री इस प्रोग्राम में संभव नहीं।
फिर का हुआ?
होना क्या था, मेरे लिए तो लालू जी को कार्यक्रम से दूर नहीं रखा जा सकता था सो चैनल ने मुझे ही हटा दिया। पर इससे पहले मैं 52 कड़ियां पूरे कर चुका था और आज भी यह सोचकर खुश हो रहता हूं 52 में भी लालू जी को स्थान नहीं मिला।
इस बार हमारी बातचीत के क्रम को बेयरा ने तोड़ा। वह पूछने को आया कि कॉफी का आर्डर रिपीट कर दूं।
मैंने कह, नहीं भाई। आज कुछ लम्बी बैठक हो गई। अब और नहीं।
वह बिल लेकर आया तो मैंने साश्चर्य टोका, यह क्या, हमने चार-चार कप कॉफी पी ली?
यस सर।
और हम थे कि न तो हमें कॉफी का अंदाज हुआ और ना ही समय का।
पैसे देकर मैं चलने को हुआ तो झूलन जी ने पूछा, अच्छा, फिर कबहुयो लालू से भेंट हुआ कि नहीं?
हुआ ना, राँची में हुआ। मैं तब राँची विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाने गया था और लालू जी आए थे कोर्ट में सरेंडर करने। संयोग से हम दोनों एक ही जगह ठहरे थे, राँची के रशियन हॉस्टल में और हमारे कमरे भी साथ-साथ ही थे। मैंने बचने का भरसक प्रयोस किया पर एक शाम हम दोनों आमने-सामने पड़ ही गए।
उन्होंने मुझसे पूछा, यहां कहां?
और जाने मेरे मन में क्या उथल-पुथल चल रही थी कि मेरे मुँह से बरबस निकल गया, आप अपने ससुराल जाने के लिए आए हैं और मैं अपने ससुराल आया हूं।
झूलन जी ने मुस्कुरा पर पूछा, आपकी ससुराल क्या वाकई राँची में है?
मैंने हां में सिर हिलाया और उन्हें लेकर कॉफी शॉप के बाहर निकल आया।