ऋषि सुनक पिछली बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनते-बनते रहे गए थे और इस बार भी यही समझा जा रहा था कि रंगभेद की नीति पर चलनेवाला इंग्लैंड किसी गैर-अंग्रेज को अपना प्रधानमंत्री शायद ही स्वीकार करे। पर इन तमाम आशंकाओं को झुठलाकर यूनाइटेड किंगडम ने यह सिद्ध कर दिया कि लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उसकी आस्था अडिग है।

ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी समाज में रंग और जाति को लेकर भेदभाव खत्म हो चुका। मुझे आज भी याद है कि शिल्पा शेट्टी जब इंग्लैंड के बिगबॉस में भाग ले रही थी तो उसे कितनी फब्तियों का सामना करना पड़ा था। यदि फिर भी वह जीत सकी तो सिर्फ इसलिए कि अंग्रेजी समाज में भी नफरत करनेवालों से कहीं अधिक संख्या शांति, व्यवस्था और न्याय चाहने वालों की है।

कहते तो हम सभी हैं कि व्यक्ति से बड़ा परिवार, परिवार से बड़ा समाज और समाज से भी बड़ा राष्ट्र है, पर इसका पालन करना कठिन हो जाता है। यह सही है कि अंग्रेजी समाज में आज भी गोरे और काले का भेद बना हुआ है। सिर्फ इंग्लैंड में ही नहीं, अमेरिका में भी हमें यह स्पष्ट तौर पर दिखता है। कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलिया तक में भारतीयों के साथ क्या सलूक हुआ था, वह हम सब भूले नहीं हैं। पर समाज,  समाज है और राष्ट्र, राष्ट्र। और राष्ट्र यदि रंग, जाति, धर्म या भाषा के आधार पर सबों को समान अधिकार और अवसर देता है तो उन्नत एवं परिष्कृत समाज उसे स्वीकार करने को बाध्य हो जाता है।

हमें भी संविधान और धर्म ग्रंथ का अन्तर करना सीखना होगा और भारत के परिप्रेक्ष्य में यह बात हिन्दू और मुसलमान दोनों पर समान रूप से लागू होती है। किसी व्यक्ति के लिए यदि राष्ट्र अहम है और उसकी निष्ठा अपने देश के संविधान में है तो फिर फर्क नहीं पड़ता कि उसका धर्म या मजहब क्या है। हम मध्य युग या प्राचीन युग में नहीं हैं जब राजा को ईश्वर की संतान मानकर उसकी सत्ता स्वीकार कर ली जाती थी और राजा से भिन्न धर्म रखना राजद्रोह था। जब मठों से ही शासन व्यवस्था का संचालन होता था। बल्कि मध्य युग में भी तो एक ओर जहां बलात धर्म परिवर्तन किए गए, वहीं दूसरी विभिन्न मान्यताओं को स्वाकराने के उदाहरण भी मिलते ही हैं।

कहा नहीं जा सकता कि ऋषि सुनक के नेतृत्व में उनकी कंज़रवेटिव पार्टी कभी चुनाव लड़ना चाहेगी या नहीं और यदि लड़ेगी तो वहां की अंग्रेज जनता उसे कितना समर्थन देगी। पर यह क्या कम है कि कंज़रवेटिव पार्टी ने किसी गैर-अंग्रेज को अपना नेता स्वीकार किया। कंज़रवेटिव का तो मतलब ही होता है, रूढिवादी और जो रूढिवादी हो, उसके लिए कोई बड़ा फेर-बदल स्वीकार करना कितना मुश्किल है, यह बखूबी समझा जा सकता है। पर ध्यान देने की बात है कि यह पार्टी सिर्फ कंज़वेटिव ही नहीं है, यूनियनिस्ट भी है। याद रखने की जरूरत है कि ब्रिटेन के सत्ताधारी दल का पूरा नाम कंज़रवेटिव एंड यूनियनिस्ट पार्टी है और उसे टोरी भी कहते हैं। ऋषि सुनक उसी पार्टी के सांसद हैं और अब उसके नेता के तौर पर यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री हैं।

हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि कोई हिन्दू आज उस ग्रेट ब्रिटेन का शासक है, जिसने दो सौ वर्षों तक हमपर शासन किया। पर हमें यह भी समझना होगा कि ऋषि सुनक हिन्दू भले ही हों, पर हिन्दुस्तानी कतई नहीं हैं। उनकी आस्था हिन्दू धर्म में हो पर उनकी निष्ठा यूनाइटेड किंगडम के संविधान में ही है और रहनी भी चाहिए। ऐसा न करने पर ही वह धर्मचुयुत होंगे।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री के तौर पर यूनाइटेड किंगडम का हितसाधन ही उनका धर्म है। और यूनाइटेड किंगडम का संविधान उन्हें हिन्दू धर्मावलंबी के तौर पर गाय पूजन का धर्म निभाने की स्वतंत्रता देता है। इन दोनों में न तो परस्पर विरोध है और ना ही कोई झोलझाल। ब्रिटिश प्रधानमंत्री के तौर पर उनका पहला और आखिरी धर्म ब्रिटिश नागरिकों के हितों की रक्षा और ब्रिटेन का विकास है, न कि हिन्दू धर्म की रक्षा और उसका उत्थान। एक हिन्दू होने के नाते उनपर गर्व करना बनता है पर यह उम्मीद करना कि इससे हिन्दू हितों को बल मिलेगा, श्रीमद्भावद गीता के उपदेशों को ही नजरअंदाज करना होगा जो हमें समझाता रहा है कि योद्धा के तौर पर तुम्हारी भूमिका, पौत्र के तौर पर तुम्हारी भूमिका से भिन्न है और यह कि युद्धभूमि में तुम महज योद्धा हो, किसी के शिष्य या पौत्र नहीं।

ऋषि सुनक भी फिलहाल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की भूमिका में हैं, उनका भारतवंशी या हिन्दू होना प्रासांगिक नहीं है। और तो और, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी सबसे बड़ी चुनौतियों में एक अपने देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सुधारना है और यहां उनका पहला मुकाबला भारत से ही है क्योंकि अभी-अभी ब्रिटेन को जीडीपी में पछाड़ कर हम पाँचवें पायदान पर आ खड़े हुए हैं।


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