ब्रिगेडियर उस्मान
ब्रिगेडियर उस्मान

तारीख, 6 मार्च 1948.

50 पैराब्रिगेड के जवानों को अपने कमांडर का संदेश मिला,

साथियों, वो वक्त आ गया है जब कि हमारी देशभक्ति और बहादुरी का इम्तिहान होगा। हम पूरी तैयारी के बाद झंगड़ को फिर से फतह करने वाले हैं। इस घड़ी का हमें बहुत दिन से इंतजार था। काम आसान नहीं मगर मुझे कामयाबी का पूरा यकीन है क्योंकि हमने खूब तैयारी की है और हमें आप सब की जवांमर्दी पर कामिल भरोसा है। वक्त करीब है जब हम झंगड़ को फतह कर के अपनी खोई हुई शान दुबारा हासिल कर सकते हैं।

बहादुरों, दुनिया की नजरें हम पर हैं। मुल्क की उम्मीदें और ख्वाइशें हम पर हैं। हम उनकी उम्मीद पूरी करेंगे। हम अपने वतन के लिए जिएंगे और वतन के लिए मरेंगे।

देश हम सब के फर्ज को पूरा करने की उम्मीद कर रहा है।

जय हिन्द।

यह संदेश भेजनेवाले थे ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान।

जब यह देश भारत और पाकिस्तान में बांटा जा रहा था, जब यहां के बाशिन्दे हिन्दू और मुसलमान में बंट चुके थे, तब ब्रिगेडियर उस्मान न सिर्फ अपने जवानों को मुल्क की खातिर जीने और मरने की कसम दिला रहे थे, बल्कि खुद भी यह कसम खाकर जंग-ए-मैदान में कूद पड़े थे। पाकिस्तान न जाकर भारत में रहने का फैसला उनका अपना था क्योंकि वह उन मुसलमानों में थे जो मानते थे कि उनकी वफादारी उनके मजहब से नहीं, बल्कि उस माटी से बंधी है जहां वह पैदा हुए और जहां की हवा-पानी में वह पले-बढ़े।

हिन्दी के इस संदेश के साथ ही अंग्रेजी में भी संदेश था जिसमें बातें सारी वही कही गई थी, लेकिन उसमें छह लाईने और थीं,

इस धरती के हरेक आदमी को देर-सबेर मरना ही है। पर किसी आदमी की इससे बेहतर मौत क्या होगी कि वह अपने पूर्वजों की अस्थियों तथा अपने भगवान के मंदिरों की खातिर भयानक हालात का सामना करते हुए मरे। (अनुदित)

Order of the day
Order of the Day by CO of 50 Para Brigade

ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को 50 पैरा ब्रिगेड की कमान संभाले दो हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि झंगड़ पर दुश्मन का कब्जा हो गया। ऐसे में, भारतीय फौज के इस मुसलमान अफसर का शक के दायरे में आ जाना स्वाभाविक था। पीठ पीछे उन्हें दुश्मन का दलाल तक कहा जाने लगा। कोई और होता तो शायद टूट जाता पर ब्रिगेडियर उस्मान किसी और ही मिट्टी के बने थे। अपने फर्ज के लिए अपनी जान की भी परवाह न करनेवाले इस जांबाज फौजी ने कसम खाई, जब तक मैं झंगड़ को जीत नहीं लूंगा, न तो माँस-मछली को हाथ लगाउंगा और ना ही चारपाई पर सोउंगा।

यह ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की सूझबूझ और बहादुरी ही थी कि हमने 18 मार्च 1948 को झंगड़ पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया। तब तक उस्मान जमीन पर चटाई बिछा कर ही सोते रहे। 3 जुलाई 1948 को वह वतन पर कुर्बान हो गए जबकि 15 जुलाई को ही वह अपनी आयु का एक और वर्ष पूरा करते।

(लेखक-पत्रकार-फिल्मकार रंजन कुमार सिंह की अप्रकाशित पुस्तक नौशेरा का शेर का शुरुआती अंश)

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