राजनाथ सिंह, अमित शाह, अरुण जेटली, राधामोहन सिंह, प्रकाश जावड़ेकर, रविशंकर प्रसाद से लेकर अनन्त कुमार तक जिस अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य रहे हैं, उसी एबीवीपी से नूपुर शर्मा का भी संबंध रहा है। यह अलग बात है के बाकियों की तरह वह न तो सांसद बनीं और ना ही मंत्री। कम ही लोग ऐसे हैं जो एबीवीपी से उठकर देश की सक्रिय राजनीति में अपना पैर जमा सके। सफल रहनेवालों में राजनाथ सिंह तथा अरुण जेटली के साथ हम जे0पी0 नड्डा, विजय गोयल तथा सुशील मोदी का नाम भी ले सकते हैं। अन्यथा, सुधांशु मित्तल से लेकर नूपुर शर्मा तक पार्टी के प्रवक्ता बनकर ही रह गए। हालांकि अब से पहले लगता था कि सत्ताधारी पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता होना कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। पर जब स्वयं पार्टी ही उन्हें ऐरू, गैरु, नत्थू खैरू मानती है तो हम और आप कौन होते हैं, उन्हें महिमा मंडित करने वाले?
विजय गोयल, विजय जौली और सुधांशु मित्तल की तरह नूपुर शर्मा भी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष चुनी गई थीं। शुरु के तीन नाम मैंने इसलिए लिए कि इन्हें छात्र संघ अध्यक्ष बनाने में कहीं न कहीं मेरा भी योगदान रहा। तब मैं स्वयं भी दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में न होते हुए भी इनसे अपनी दोस्ती निभाते हुए मैंने इन्हें अपना भरपूर साथ और समर्थन दिया। इनमें से विजय गोयल तथा सुधांशु मित्तल से मेरी दोस्ती आज भी कायम है। खासकर सुधांशु तो आज भी उतनी ही आत्मीयता से मिलते हैं, जितना कि वह पहले मिलते थे।
जब नूपुर 2008 में छात्र संघ की अध्यक्ष बनीं जाहिर है तब मैं विश्वविद्यालय में नहीं था। पर उनका चुना जाना अहम था। इसलिए कि उनके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ में शेष सभी भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ के सदस्य थे। मतलब यह कि छात्र संघ में उपाध्यक्ष, महासचिव और सचिव के पद एनएसयूआई को गए थे। केवल नूपुर ने ही एबीवीपी की साख बचाए रखी थी। 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में नूपुर को पार्टी ने अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा। जिन केजरीवाल के नाम पर आप के दूसरे उम्मीदवारों की जीत पक्की थी, उन्हें हराना क्या आसान था? बहरहाल, दिल्ली प्रदेश भाजपा की आधिकारिक प्रवक्ता के पद से चलकर वह पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता के पद तक पहुंची थीं।
सच कहें तो किसी भी राजनैतिक दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता की भूमिका वैसी ही है जैसे किसी राजदूत की। किसी भी देश का राजदूत, उस देश के मूल्यों, उसकी विधारधारा और उसकी नीतियों का प्रतिनिधित्व करता है। उसी तरह पार्टी प्रवक्ता भी अपने दल की नीतियों और विचारधारा का प्रतिनिधि होता है। टीवी के मंच पर वही पार्टी का चेहरा होता है। भाजपा की नीतियों से विरोध के बावजूद मैं कह सकता हूं कि अपने काम में नूपुर ईमानदार रहीं। उन्होंने वही कहा, जो पार्टी के विचार थे। उन्होंने वही कहा, जो पार्टी दूसरे नेता कहते रहे थे। अब यह दीगर बात है कि विदेशी दबाव में आकर पार्टी ने नूपुर से नाता तोड़ लिया है। यदि विदेशी दबाव न होता तो शायद नूपुर को भी पार्टी में वही इज्जत मिलती जो कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर तथा गिरिराज सिंह सरीखे नेताओं को मिली हुई है। पर फिलहाल तो उन्हें फ्रिंज एलिमेंट यानी पार्टी से अलग-थलग बताया जा रहा है।
किसी ने सही कहा है कि जब दुर्दिन आते हैं तो आदमी का साया भी उसका साथ छोड़ देता है। ऐसे में यदि भाजपा ने खुद को नूपुर से किनारे कर लिया या यूं कहें के उन्हें ही किनारे लगा दिया, तो आश्चर्य कैसा?