यूँ बढ़ गई ज़िन्दगी छोटे साहब की
रौ में बहकर कह गए वह ढेर सारी बातें
सुबह से ही किसी अनजान नंबर से फोन आ रहा था और इत्तेफाक से मैं हर बार किसी काम में लगा होने की वजह से उसे उठा नहीं पा रहा था। आदतन मैं किसी का फोन कॉल नहीं उठाने पर उसे जरूर कॉलबैक करता हूं, बशर्तें उसका नाम और नंबर मेरे फोन में सुरक्षित हो। पर यदि कोई नाम और नंबर मेरे फोन में सुरक्षित नहीं होता तो ऐसे में मैं वापस फोन न कर यह मान लेता हूं कि यदि उसे जरूरत होगी तो वह खुद फिर से फोन लगाएगा ही। ऐसा मैं किसी को नजरअंदाज करने के इरादे से नहीं करता बल्कि रोजाना आठों पहर परेशान करते रहने वाले सेल्समैन से बचने के लिए करता हूं।
अबकी बार फिर उसी नंबर से फोन आया तो मैंने तत्काल उठा लिया।
सुबह से ही आपको फोन कर रहे हैं। आप तो किसी का फोन उठाते ही नहीं, उधर से शिकायत हुई।
हां, किसी काम में लगा हुआ था, पर आप कौन?
लीजिए, अब पहचानते भी नहीं?
माफ करें, आवाज से नहीं पहचान पा रहा हूं। अगर हम वीडियो कॉल पर होते तो शायद आपका चेहरा देखकर पहचान लेता।
आप नेता लोग का यही आदत है। चुनाव के चुनाव ही लोगों को पहचानते हैं।
अरे झूलन बाबू, आपकी आवाज कभी फोन पर सुनी नहीं थी ना इसलिए पहचान नहीं पाया। बोलिए, कैसे याद किया?
तो आपने मेरा फोन नंबर सेव तक नहीं किया है?
आपने अपना नंबर दिया ही नहीं तो सेव कैसे करता?
तो अब तो मेरा नंबर आ गया ना आपके फोन पर? कर लीजिए सेव।
हां, बात खत्म हो जाए तो सेव कर लूंगा। पर यह तो बताइए कि क्या काम आ पड़ा?
काम कौउनो नहीं आया। बस जबसे आपसे बिदा लीए, हम एक ही बात सोच रहे हैं, आमने सामने में लालू को नहीं शामिल करने वाला बात तो आप बता दिए पर छोटे साबह को शामिल करने वाला बात तो रह ही गया।
हां, मैंने कहा था ना, कभी और सुनाउंगा।
फेर आज काहे नहीं? मिलते हैं ना आज संझा को।
आज रहने दीजिए। किसी काम में हूं और फिर पता भी नहीं था कि आपसे मिलना है। ऐसा करते हैं, कल का तय कर लेते हैं।
तो कल का पक्का। भूलिएगा नहीं। कहां, उहे कॉफी शॉप में ही ना?
हां, वहीं। पर थोड़ा जल्दी। तीन बजे मिलें?
ठिके है। हम इंतजार करेंगे।
और जब अगले दिन मैं ठीक तीन बजे वहां पहुंचा तो वे इंतजार में बाहर खड़े ही मिल गए।
फिर वही, न दुआ, न सलाम। बस शुरु हो गए वह, का कहें, जब से आप बोले हैं, छोटे साबह के बारे में जानने को अधीर हैं हम कि हुआ का था!
कॉफी शॉप के भीतर जाते हुए मैंने उनसे कहा, आप जानते हैं ना कि मैं सत्येन्द्र बाबू के खिलाफ चुनाव लड़ चुका हूं।
उन्होंने मेरी तरफ देखा और हां में सिर हिला दिया।
आप यह भी जानते होंगे कि मेरे पिता भी उनके खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं।
पर शायद आप यह न जानते होंगे कि मेरे बाबा, अनुग्रह बाबू के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं!
रंजन बाबू, हमको खूब मालूम है कि आपके बाबा कामता बाबू, अनुग्रह बाबू के खिलाफ कांग्रेस के संगठन चुनाव में लड़े थे। और तो और, कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य कामता बाबू चुन लिए गए और अनुग्रह बाबू रह गए। तब आपके बाबा ने यह कहकर अपनी सीट छोड़ दी थी कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मेरे रहने का कोई महत्व नहीं, इसमें अनुग्रह बाबू को ही रहना चाहिए। मजे की बात यह कि उस चुनाव में आपके बाबा जीते, फिर अगले चुनाव में छोटे साबह जीते और फेर अगले में आप दोनों ही हार गए।
मुझे उनकी जानकारी पर आश्चर्य हुआ। यह बात अब जिले के बूढ़े-पुरानों को ही याद है और उनकी संख्या भी कम ही होती जा रही है।
मैंने भीतर एक सीट पर खुद को जमाते हुए उनसे पूछे, क्या लीजिएगा, चाय या कॉफी?
कॉफिए पी लेंगे।
मैंने दो कॉफी का आर्डर दिया और उनकी तरफ देखकर पूछा, कुछ खाने के लिए?
न-न, बस कॉफिए, फिर खुद को सीट पर व्यवस्थित करते हुए वे बोले, आपको नहीं लड़ना चाहिए था छोटे साहब से। आपको तो जीतना नहीं था, पर आप नहीं लड़ते तो ऊ जरूर जीत जाते।
मैं कहां चाहता था उनके खिलाफ चुनाव लड़ना, मैंने सफाई दी, बल्कि सच तो यह है कि वही चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, तभी मैंने चुनाव लड़ने का मन बनाया था। अर्जुन सिंह जी ने तो मुझे यह तक कहा था कि कांग्रेस (ति) के उम्मीदवार के तौर पर छोटे साहब मेरा समर्थन करने को तैयार हैं। मैं खुद भी पटना में उनसे मिलने गया और उन्होंने मुझे अपना आशीर्वाद भी दिया।
फेर?
फिर क्या, जिस दिन मुझे अपना नामांकन करना था, उसी दिन वह खुद भी आ पहुंचे अपने नामांकन के लिए। मेने अर्जुन सिंह जी से पूछा, मुझे अब क्या करना चाहिए? उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि वे इस बारे में छोटे साहब से बात करेंगे। उन्होंने छोटे साहब से बात की या नहीं, यह तो नहीं जानता, अलबत्ता छोटे साहब ने ही अपने एक विशेष दूत को मेरे पास भेज कर कहलाया कि अगर मैं बैठ जाता हूं तो वे मुझे कांग्रेस से एमएलसी बना देंगे। पार्टी कहती तो मैं जरूर बैठ जाता पर अपने स्वार्थवश खुद बैठना मुझे गवारा नहीं हुआ। हां, यह आप सही कहते हैं कि अगर मैं न लड़ा होता तब वह जरूर जीत जाते।
आप तो महाराज फकत पाँच हजार वोट में निबट गए और ऊ हारे 23 हजार से, झूलन जी आद फिर से मुझे खरोंचने के मूड में थे।
हां, पर वोट और वोट का अंतर सब कुछ बयान नहीं करता। बहुत जगह तो दोनों पक्षों के बीच रगड़ा लग जाने से वोट ही नहीं डाले जा पाते। मुझे याद है उस साल मदनपुर के बेरी-कलाली में मेरे और उनके समर्थक कुछ ऐसा टकराए कि वहां वोट ही नही गिर सका। नहीं तो उन्हें इकतरफा वोट मिल जाता। ऐसा और जगहों पर भी हुआ होगा।
हो सकता है, उन्होंने हामी भरी और फिर से मुझे छेड़ा, छोटे साहब कह के भी आपको मदद नहीं किए तो आपको गुस्सा नहीं आया?
उनपर गुस्सा कर के मैं कर भी क्या लेता। मुझे मदद देना उनका फैसला था और खुद चुनाव लड़ना भी उनका ही फैसला था। हां, इस बात का अफसोस जरूर हुआ।
फेरू आप आमने-सामने प्रोग्राम में उनको ले के आए? यह कहकर झूलन जी ने बात को पटरी पर ला रखा।
मेरे खिलाफ चुनाव लड़ने से उनके प्रति मेरी श्रद्धा क्यों कम होती भला? और फिर छोटे साहब ने एक बड़ा दौर देखा था और बड़े अनुभव बटोरे थे। मेरे लिए मौका था कि उनके वे अनुभव मैं आसने-सामने के दर्शकों से साझा करूं। सो मैंने किया।
और ऊ जो लालू के नहीं रहने और उन के रहने वाला कहानी है, ऊ?
सो तो है, पर आप बात आगे कहां बढ़ने दे रहे हैं। धूम-फिर कर हम तो 1996 के चुनाव पर ही अटके हुए हैं।
अच्छा तो, हम अब खाली सुनने का काम करेंगे। आप बताइए।
ऐसा है कि आमने-सामने के लिए बावन लोगों की सूची बनाते हुए मुझे लगा कि मेरे जिले औरंगाबाद से कोई तो रहना चाहिए इसमें। और उनसे बढ़कर और कौन था, जिससे प्रांत की राजनीति पर बात की जा सके। सो मेने उनका नाम शामिल कर लिया। फिर साक्षात्कार के लिए समय लेने के ख्याल से मैंने उनके यहां फोन किया तो मुझे बताया गया कि वह बीमार हैं और किसी से बातचीत नहीं कर रहे। मैं मायूस हो गया।
कुछ ही देर बाद ऊधर से फोन आया और इस बार किशोरी जी ने मुझसे बात की। आदतन, मैं अपने पेशेगत काम में अपने पिता का परिचय नहीं देता। इससे मुझे बेबाक होकर सवाल-जवाब करने की आजादी मिल जाती है, नही तो अपने पिता से सामनेवाले के संबंधों का लेहाज करना जरूरी हो जाता है। इसलिए यहां भी मैंने इतना ही बताया था कि मैं ईटीवी बिहार से रंजन बोल रहा हूं।
फोन पर मुझे पाकर किशोरी जी ने मुझसे कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानना चाहा और कार्यक्रम के महत्व को समझते हुए बोलीं, वैसे तो वह कहीं आ जा नहीं रहे हैं, पर अगर आप उनके साथ उनके निजी डॉक्टर को बैठाना मान लें तब हम इसपर विचार कर सकते हैं।
मुझे भी आशा की किरण दिखाई पड़ी और मैंने तत्क्षण कह दिया, इसमे क्या परेशानी है। उनका कार्यक्रम में शामिल होना ही महत्वपूर्ण है। उनके साथ कोई और भी हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं।
इसपर किशोरी जी कुछ निश्चिंन्त हुई और उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके डॉक्टर से बात कर के बाद में आपको बताती हूं।
मैंने भी कह दिया कि मुझे उनके फोन का इंतजार रहेगा। पर बाद में मैंने सोचा कि छोटे साहब को क्यों कष्ट दिया जाए, क्यों न हम कैमरा टीम लेकर उनके आवास पर ही जा पहुंचे और वहीं सारी बात करें। हालांकि इसमें एक अड़चन थी। कार्यक्रम का प्रारूप स्टूडियो आधारित था और यहां तक कि हम राजन तिवारी और पप्पू यादव को भी जेल से निकाल कर स्टूडियो में लाने में सफल रहे थे।
अब मैंने ईटीवी के वरिष्ठ अधिकारियों से बात कर के उन्हें इस साक्षात्कार का महत्व समझाया और स्टूडियो का फॉर्मेट तोड़ कर उनके आवास पर शूटिंग करने की अनुमति उनसे मांगी। मेरी बात को समझते हुए उन्होंने भी इसकी इजाजत दे दी। मैं फोन कर के यह बात किशोरी जी को बताता कि इससे पहले उनका ही फोन आ गया और उन्होंने हमें बताया कि डॉक्टर छोटे साहब को घर से निकलने पर तैयार है और वह खुद भी उनके साथ रहेगा। उनकी बात सुनने के बाद मैंने उन्हें खुशखबरी दी कि ऐसा करने की जरूरत नहीं क्योंकि हम ही अब उनके आवास पर कैमरा टीम लेकर आ रहे हैं।
कुछ सोचने के बाद किशोरी जी ने सहर्ष इसपर अपनी सहमति दे दी और शूटिंग की तारीख तय हो गई। इस बीच औरंगाबाद के मेरे दोस्तों को पता चला कि मैं कैमरा लेकर छोटे साहब के घर जा रहा हूं तो उनमें से कुछ मेरे पीछे पड़ गए कि मैं उन्हें भी साथ लेता चलूं। जो लोग उस परिवार को जानते हैं, उन्हें बखूबी पता है कि छोटे साबह के घर में दाखिल होना तो दूर, उनसे मिलना भी कितना मुश्किल है। ऐसे में उस घर में जाना उन सभी के लिए स्वप्नवत था, जिसे पूरा होते देखना वे चाहते थे।
अरे, ई तो गजब। हमको पता होता तो हमहू ना चल पड़ते, झूलन जी के चेहरे पर आगे की कहानी जानने की उतावली के साथ-साथ अपने छूट जाने का अफसोस भी झलक रहा था।
हां, आप रहते तो आप भी चलते। उसमें क्या था!
हम दोनों की कॉफी तब तक खत्म हो चुकी थी। बेयरा शायद दो-एक बार नया आर्डर लेने आया था पर हमने ही उसपर ध्यान नहीं दिया था।
और कॉफी चलेगी, मैंने पूछा।
झूलन जी बोले, ना-ना, आपके चक्कर में आजकल चाय-कॉफी खूब हो जा रहा है। अब और नहीं।
ठीक है, मैं अपने लिए तो मंगवा लूं, मैंने यह कहते हुए केवल एक कप का आर्डर दे दिया और फिर कहानी को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा, जिस दिन हमें शूटिंग के लिए जाना था, उसके एक दिन पहले किशोरी जी का फोन आ गया। मुझे आशंका हुई कि कहीं छोटे साहब का स्वाल्थ्य तो नहीं बिगड़ गया, पर उधर से किशोरी जी ने पूछा, तो आप आ रहे हैं ना?
निश्चय ही, मैंने उन्हें भरोसा दिलाया, हम समय पर हाजिर हो रहेंगे।
बहुत बढ़िया, यह बताइए आप चाय के साथ क्या खाना पसन्द करेंगे?
नहीं, नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं। वैसे भी मैं चाय बिलकुल नहीं पीता।
चाय नहीं पीते तो ठण्डा पीते हैं?
वह तो और भी नहीं। हां, कॉफी जरूर पी लेता हूं पर उसकी भी जरूरत नहीं। और फिर मैं अकेला नहीं रहूंगा, मेरे साथ बहुत से लोग होंगे।
तो क्या, सब के लिए इंतजाम होगा। और आपके लिए कॉफी ही रहेगी। उसके साथ सैंडविच तो लेंगे?
आपकी जैसी मर्जी, मैंने यह कहकर बात को विराम दे दिया।
अगले दिन मेरे साथ कैमरा टीम के लोग तो थे ही, बिना काम वाले भी बहुत थे। सब के सब पहली बार बेरोक-टोक छोटे साहब के ड्राइंग रूम तक पहुंच गए। जिस घर में बाहर घास पर चलने की भी मनाही हो, वहां भीतर जाकर सोफे पर बैठकर सभी खुद को धन्य समझ रहे थे। कैमरा मैंन, लाईट मैन आदि को निर्देश देते रहते हुए भी मैं उन लोगों के चेहरे पर आनन्द के भाव को पढ़ पा रहा था।
छोटे साहब तब तक कमरे में नहीं आए थे पर हमें बता दिया गया था कि वह कहां बैठेंगे। उसी के अनुसार हम लाईट आदि की व्यवस्था कर रहे थे। इस श्रमसाध्य काम में समय तो लगता ही है। इसी बीच हमारे लिए कॉफी और साथ में सैंडविच आ पहुंची। जाहिर तौर पर हमारे लिए खाने से ज्यादा जरूरी अपना सेटअप खड़ा करना था, पर और लोग तो कॉफी-नाश्ते पर टूट ही पड़े।
थोड़ी देर में किशोरी जी स्वयं उपस्थित हुई। उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से पूछा, आपने कॉफी ली?
अभी नहीं, पहले अपनी तैयारी कर लें फिर लेते हैं, मैंने कहा।
उन्होंने पूरे ड्राइंग रूम का जायजा लिया, जहां लोग पसरे हुए थे। ऐसी दुर्गति उनके ड्राइंग रूम की शायद ही कभी हुई हो। यह उन्हें अच्छा नहीं लगा होगा, मुधे ही नहीं लग रहा था। पर मैं करता क्या, आँखों से लोगों को मना कर के अपने काम में लगता था तो लोग फिर पसर जाते थे। पता नहीं, सबों को देखकर किशोरी जी को हमपर गुस्सा आया या ड्राइंग रूम की हालत पर अफसोस हुआ, पर उन्होंने कहा कुछ नहीं। बस यह बोल कर चली गईं कि कैमरा लगा लेने के बाद आप कॉफी पी लीजिए, तब उन्हें लाती हूं।
हमने ऐसा ही किया। और हमारे कॉफी खत्म करते-करते छोटे साहब खुद भी कमरे में आ गए। बड़े ही आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखम हुए वह बढ़ रहे थे और फिर लम्बें सोफा तक आकर वह उसपर पसर गए। उन्हें देखने से ही लगता था कि उनका स्वास्थ्य सही नहीं है। तकियों के सहारे उन्हें बैठा दिया गया था। हमने कैमरे, माइक, लाईट को जल्दी से एडजस्ट किया और सामने विकास झा जी को बैठाकर सवाल-जवाब शुरु करने को कहा।
शुरुआती सवालों के बाद ही छोटे साहब ने सोफे पर लेटने की इच्छा व्यक्त की। हमने शूटिंग रोककर उन्हें आराम करने को कहा। थोड़ी देर आराम करने के बाद उन्होंने किशोरी जी को बुलाया और उनके कानों में कुछ कहा।
किशोरी जी ने मेरी ओर मुकातिब होकर पूछा, क्या वह लेट-लेटे बात कर सकते हैं?
हमने जब फॉर्मेट तोड़ ही दिया था तो इससे क्या फर्क पड़ता था कि वह बेठकर बोलें या लेट कर। उनका बोलना ही अहम था, पर उनकी आवाज इतनी कमजोर थी कि उसे समझ पाना मुश्किल था। हमने तब तक आदमी भेजकर और तगड़ा माईक मंगा लिया था। पटना में शूटिंग का यह फायदा था। दिल्ली में तो कहीं एक बार आने-जाने में ही दिन खर्च हो जाता है।
सो तो है, झूलन जी ने हामी भरी और मेरी तरफ टकटकी बांधे रहे।
छोटे साहब अधलेटे बातें करते रहे, पर हमने कैमरा ऐसा लगाया कि वह बैठे हुए दिखाई दें। पर बातचीत बीच-बीच में रोकनी पड़ती थी। थोड़ा बोलने के बाद ही वह थक जाते थे। कभी उत्साह में आकर जरा जोर से बोल देते, तब भी उनकी सांस तेज हो जाती थी। हमें यह सब देखते हुए शूटिंग करनी पड़ रही थी। जो काम हम औरों के साथ 40 मिनट में पूरे कर लेते थे, वह यहां तीन घंटा बीच जाने के बाद भी खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था।
किशोरीजी ने हमने निवेदन किया कि हम शूटिंग रोक कर उन्हें थोड़ा आराम करने दें और इस बीच कुछ खा भी लें। समय को देखते हुए उन्होंने हमारे भोजन की व्यवस्था इस बीच कर दी थी। अपने लिए तो नहीं पर छोटे साहब के लिए हमने कुछ समय के लिए शूटिंग रोक दी और उस अवधि का उपयोग पेट पूजा में किया।
खैर, रोकते-टोकते आखिरकार काम पूरा हुआ और हम निकलने को हुए। इस बीच शायद किसी ने उन्हें मेरा परिचय दे दिया था। सो, उन्होंने मुझसे सीधा सवाल किया, आपका घर कहां है?
यहीं पटना में, मैंने बात को आगे न बढ़ाने के ख्याल से कहा।
पटना में कहां?
आपके पड़ोस में ही। मैं बोरिंग कनाल रोड में रहता हूं।
अब उन्होंने नया पैंतरा चला, कोई गाँ भी होगा?
हां, मैं औरंगाबाद का ही रहने वाला हूं।
औरंगाबाद में कहां?
देव, मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
देव सदर या किसी गाँव में?
मैं भवानीपुर का रहनेवाला हूं।
वहीं के तो कामता बाबू भी थे, उन्होंने संभवतः जानबूझ कर ही मेरे बाबा का नाम लिया।
जी, मैं उन्ही के परिवार में हूं।
क्या लगते हैं कामता बाबू आपके?
जी, दादा जी।
अब वह पहेली बूझने-बुझाने के खेल में न पड़कर सीधा मेरे परिचय पर चली आई, तुम कानन के बेटे हो?
पिताजी का नाम न लेकर उन्होंने मेरी माँ का नाम लिया, जो जाहिर तौर पर यह दिखाने की कोशिश थी कि वह मेरे परिवार के कितने करीब हैं।
मैंने हां में सिर हिलाया।
तो पहले बताना था ना।
इसपर मैं भला क्या कहता। इंटरव्यू पूरा हो चुका था और कैमरे भी बंद कर दिए गए थे। एक चक्र और कॉफी हमारे लिए मंगाई जा चुकी थी। मैं अजनबी पत्रकार के तौर पर अंदर दाखिल हुआ था और निकल रहा था पारिवारिक रिश्ता जोड़ कर। फिर भी मैं खुश था क्योंकि बातचीत अच्छी हुई थी और छोटे साहब ने रौ में बहकर बहुत कुछ ऐसा कहा था जो राजनीतिक क्षेत्र के लिए नया था। लालू जी को लेकर उन्होने कुछ कॉन्ट्रिवशियन बातें बी कह दी थीं जो बिहार की राजनीति में भूचाल खड़ा कर सकती थीं। श्यामा जी को लेकर भी उन्होंने कुछ ऐसा कहा था, जो परिवार में तनाचनी बढ़ा देता।
मुझे याद है कि उस दिन मैं इसी इंटरव्यू की एडिटिंग कर रहा था कि किशोरी जी का फोन मेरे मोबाइल पर आया।
रंजन, तुमसे कुछ मदद चाहिए।
मैं भला उनका क्या मदद कर सकता हूं, मैंने सोचा।
आप आदेश करें।
आदेश नहीं, तुमसे आग्रह है। तुम्हारे बाबा बहुत कुछ बोल गए थे। उसको वैसे मत दे देना। खास कर के लालू और श्यामा वाला पोर्शन तो पूरी तरह काट देना।
बाबा से उनका मतलब छोटे साहब से था। मैं चुपचाप उनकी बात सुनता रहा। समझ नहीं पाया कि क्या कहूं। उनकी बात नहीं मानता हूं तो रिश्ते की दूरियां और भी बढ़ेंगी और मानता हूं तो पत्रकारिता के धर्म से जुदा बात होगी। मेरे लिए यह धर्म संकट की स्थिति थी पर अंततः मैंने वही किया जो मेरे अन्तरमन ने कहा। मैंने वे सभी बातें काटकर निकाल दीं जो छोटे साहब के लिए तथा उनके परिवार के लिए परेशानी का कारण बनतीं। मुझे लगा कि किसी बुजुर्ग को विवाद के बीच खड़ा कर देना शायद गलत होगा।
किशोरी जी ने चाहा कि उन्हें टीवी कार्यक्रम दिखाने के बाद ही उसे टेलिकास्ट किया जाए पर मैं ऐसा नहीं कर सका। उसके टेलिकास्ट के बाद छोटे साहब आप से आप राजनीति में प्रासांगिक हो उठे। लोगों ने उस कार्यक्रम को बेहद पसंद किया।
उसके बाद फिर कभी बच्ची जी ने आपको फोन किया कि नहीं, झूलन जी ने मासूम-सा सवाल किया।
हां, किया ना। फोन कर के मुझे धन्यवाद तो दिया ही और फिर मेरे लिए संतरे की खीर भी भिजवाई। पर उनका सबसे महत्वपूर्ण फोन कॉल इसके महीनों बाद आया। अचानक फिर से से उनका फोन देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा, सब ठीक तो है ना?
हां, बिलकुल। पर तुम यह बताओ, तुम हो कहां? पटना में हो या नहीं?
हां, दादी पटना में ही हूं। आदेश करें।
हां, आदेश ही समझो. कल तुम्हें आना है।
जरूर आ जाउंगा। कोई विशेष बात?
बेहद विशेष। कल तुम्हारे बाबा का जन्मदिन है।
अरे, फिर तो जरूर आउंगा। इसमें सोचना-सपरना क्या?
अगले दिन मैं समय पर उनके आवाल जा पहुंचा। वहां, पहुचकर पाता हूं कि राम उपदेश बाबू और रामशोभित सिंह जी बाहर ही खड़े हैं। दोनों पिता जी के अनन्य साथी रहे हैं। मेरी गाड़ी को गेट पर देखकर दोनों तपाक से मेरे पास आ गए और मुझे साथ लेकर सीधे किशोरी जी के सामने खड़ा कर दिया। मुझे संकोच हो रहा था पर संभवतः उनसे कहा गया था कि मैं आऊं तो समुचित सत्कार के साथ मेरी अगवानी की जाए।
किशोरी जी मुझे देखकर कितनी खुश हुई, यह बता सकना शायद संभव न हो। उन्होंने रामशोभित बाबू से कहा कि रंजन को लेकर आप बाहर बढिए। हम आते हैं।
मैं बाहर लॉन में पहुंचा तो पटना का संभ्रांत समाज बड़ी तादाद में वहां नजर आया। बीच में बड़ा सा केक रखा था। मैं कुछ और देखता, तब तक लोगों में भारी हलचल हुई और सामने से किशोरी जी के साथ छोटे साहब घर से बाहर आते दिखाई दिए। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह देखकर हुआ कि जो व्यक्ति कुछ महीने पहले ठीक से सोफे पर बैठ नहीं पा रहा था, वह खुद से चलकर बाहर लॉन तक चला आया था।
पर उससे भी बड़ा आश्चर्य तो मेरे लिए बाकी था, मैंने कुछ रहस्यमय अंदाज में यह कहा। झूलन जी मुंह बाये-बाये मुझे सुन रहे थे।
शायद इससे बड़ा सम्मान मुझे कभी न मिले, मैंने अपनी बात जारी रखी। किशोरी जी ने मेरा हाथ पकडकर मुझे अपने समीप कर लिया। उनकी एक ओर छोटे साबह थे और दूसरी ओर मैं।
ई तो वाकई सम्मान का बात है, झूलन जी बोले।
अभी कहां? मैंने कहा, तालियों के बीच छोटे साहब ने केक काटा और उसका पहला पीस किशोरी जी ने उठाकर उन्हें खिलाया। और फिर वह हुआ जिसकी मैंने कल्पना न की थी। केक का दूसरा पीस उठाकर उन्होंने मेरे मुंह में रख दिया।
इसके बाद न मैं कुछ बोला और न झूलन जी। हम दोनों चुपचाप कॉफी शॉप से निकल आए। मैंने गौर किया, झूलन जी के मन में मेरे लिए कुछ और ही भाव जन्म ले रहे थे।
बहुत रोचक प्रसंग है। सत्येंद्र बाबू को देखा था पर किशोरी जी को एक बार एयर पोर्ट पर दिल्ली की फ्लाइट पकड़ते दूर से देखा था, शिफॉन की प्रिंटेड साड़ी में… खूबसूरत स्त्री, वर्ष ७१-७२ का रहा होगा।
बड़ी सहजता के साथ घटना को लिखा गया है, न कलम कहीं ठहरती है, न पाठक ठहरता है।