रतन टाटा

रतन टाटा भी चले गए!

रतन टाटा भी चले गए। इसके साथ ही जमशेदजी टाटा की वंश परम्परा रुक गई। बावजूद इसके जमशेदपुर रहेगा और रहेगा टाटानगर। इस्पात की बात होगी तो टाटा याद किए जाएंगे। हाईवे पर ट्रकों को दौड़ता देखकर टाटा याद हो आएंगे।
कोई भी व्यक्ति अपने शरीर में जीवित नहीं रहता। हम मान लेते हैं कि वह अपने शरीर में केन्द्रित है, पर ऐसा होता नहीं। आदमी अपने शरीर से अधिक दूसरों के मन-मस्तिष्क में जीवित रहता है। अनेक ऐसे लोग हैं जो कहने को जीवित हैं पर याद नहीं रहता कि वे हैं भी कि चल बसे। जबकि कुछ लोगों का चले जाना भी हम भूल जाते हैं। लगता है कि कल की ही तो बात थी। जो हमारी यादों में रचे-बसे होते हैं, वे मरते नहीं हैं। जो जितने अधिक लोगों की स्मृतियों का अंग हो रहते हैं, उनकी आयु उतनी ही बड़ी होती है। जो यादों से कभी जुदा ही न हो, वह अजर-अमर हो रहता है। अमरत्व और नश्वरता शरीर से परे है। यह हमारे मन-मस्तिष्क का विषय हैं।
कुछ लोगों को केवल उनका परिवार याद रखता है। कुछ ऐसे भी अभागे हैं, जिन्हें उनका परिवार भी याद नहीं रखता। कुछ लोगों को उनका समाज याद रखता है। कुछ लोगों को उनका युग याद रखता है। और कुछ लोगों को युगों-युगों तक भुलाया नहीं जा पाता। ऐसे ही लोग अमर होते हैं। जिन्हें उनके शरीर की वजह से याद रखा जाता है, उन्हें उतनी ही जल्दी भुला भी दिया जाता है। जिन लोगों को उनके काम और संस्कार की वजह से याद रखा जाता है, उन्हें भूलना आसान नहीं होता। जिन लोगों के काम और संस्कार किसी समूह विशेष को प्रभावित करते हैं, वे उस समूह के खात्मे के साथ ही खत्म हो जाते हैं। या फिर याद किए जाते हैं तो छोटी सी परिधि में ही। जिन लोगों के काम और संस्कार युगों को प्रभावित करते हैं, वे कभी मरते नहीं। पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहते हैं। देश-देशांतर तक बने रहते हैं। टाटा परिवार भी निस्संदेह उन्ही में से है।
टाटा परिवार ईशोपनिषद के सूक्तों का जीवन्त उदारहण है। ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम्। रब की चद्दर में समाया सब का सब, न तेरा और न मेरा है, है रब का सब। गिद्ध की नजर उसपर हो क्यों जो दूजे का, पाओ मौज से तुम छोड़ हिस्सा औरों का।
और उससे भी बढ़कर, सौ साल की भी जिन्दगी तो काम में लगे और काम करो ऐसे कि काम न लगे। कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।
टाटा परिवार ने खुद से अधिक समाज के लिए किया। वह भी जातिगत समाज के लिए नहीं, बल्कि सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक समाज के लिए। खुद से भी अधिक समाज के लिए जोड़ते रहे। यह न सोचा कि उनके बाद, उनकी सम्पत्ति का क्या होगा। जो कहने भर को अपना था, उसे भी सबों में लुटाकर चले गए। पर वे गए कहां? हमारे लिए क्या इतना आसान होगा उन्हें विदा कर देना? फिर भी सोचकर मन उदास हो उठता है कि ऐसे लोग अब कब होंगे!
भारतीय मानस पर श्रीमद भगवद्गीता के उपदेशों का कितना ही गहरा असर क्यों न हो, किसी का इस तरह चले जाना हमें उदास कर ही जाता है। रतन टाटा मेरे कौन थे? अपनी अपार सम्पत्ति में वे मेरे लिए क्या कुछ छोड़ गए? पर मन उदास है। लगता है मानों कोई अपना, बहुत अपना, हमें छोड़ कर चला गया। उन्हें प्रणाम कर शायद हम अपने जीवन को कुछ सार्थक बना सकें।
टाटा परिवार हिन्दू नहीं, पारसी था। पारसी रीति अनुसार रतन टाटा के शरीर का एक-एक कतरा परमार्थ के लिए होगा। सच कहें तो टाटा परिवार का जीवन संदेश यह नहीं है कि क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाएंगे, या यह कि खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे, बल्कि टाटा परिवार का जीवन संदेश उससे भी कहीं बड़ा है, जो कुछ भी है, वह जितना तुम्हारा है, उतना ही औरों का है। अपना सर्वस्व समाज को सौंप जाने में ही जीवन की सार्थकता है।
रतन टाटा ने जानते-बूझते हुए भी न तो किसी को गोद लेकर अपनी सम्पत्ति को संजोकर रखने की कोशिश की और ना ही किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर टाटा समूह पर अपना मत थोपा। टाटा की कहानी रातों-रात अमीर बन जाने की कहानी नहीं है। यह अपने हिम्मत और धैर्य से खुद अपने लिए, और उससे भी बढ़कर अपनों के लिए कुछ न कुछ करते रहने की दास्तान है। रतन टाटा के अपनत्व का यह दायरा उनके परिवार और उनकी जाति में सिमटा नहीं था और इसीलिए वह अद्वितीय थे, अनमोल थे। रतन टाटा चले तो गए पर छोड़ गए एक ऐसी विरासत जो किसी एक की पूंजी न होकर, समाज का दाय (हेरिटेज) है। रतन टाटा को समझने के लिए कबीर के शब्दों का सहारा लेना जरूरी पड़ जाता है, झीझी-झीनी बीनी रे चदरिया। और फिर, जस की तस धर दीन्ही रे चदरिया।
ओम शांति।

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