वर्तमान लोकसभा में उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी के कुल दस सांसद हैं. हाल में संपन्न विधान सभा चुनाव में इन दस ने कुल मिलकर बारह विधायक जिताकर भेजें हैं – पचास सीटों से कुल बारह विधायक! प्रतिशत के हिसाब से पच्चीस फीसदी. इनमे से चार तो अपने-अपने यहाँ से एक विधायक को भी जिताकर नहीं भेज पाए. इनमें भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह भी हैं. अब जब २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए उलटी गिनती चालू हो चुकी है, इन सांसदों का यह स्कोर कार्ड गौरतलब है.

यह सही है कि इस बार प्रदेश में समाजवादी पार्टी की ज़बरदस्त लहर थी. या यूं कह लें कि बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ जनता में भारी उबाल था, जिस पर सपा अपनी भात पकाने में सफल रही. इस आक्रोश को अपने पक्ष में भुनाने में भाजपा या कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां क्यों चूक जाती हैं, यह विचारणीय है. क्या इस प्रदेश के लोग मान बैठे हैं कि उनकी आशा-आकाँक्षाओं की पूर्ति यहाँ की क्षेत्रीय पार्टियां ही कर सकती हैं? भाजपा तो मानो यह पूरी तरह मान ही बैठी है. हां, कांग्रेस ने इस बार उद्यम ज़रूर किया और यह कहना गलत होगा कि उसे इसका फल नहीं मिला.

कांग्रेस की सीटों में पिछली बार की अपेक्षा छह सीटों का बढ़ना इसी बात की ओर संकेत करता है कि कोई उद्यम व्यर्थ नहीं जाता. दूसरी तरफ भाजपा की चार सीटें पिछली बार की तुलना में कम हो गईं. ज़ाहिर है कि बहुमत के लिए वोट देने वाली जनता को भाजपा में कहीं कोई उद्यम दिखाई नहीं दिया. २०१२ की विधान सभा चुनावों की सबसे बड़ी बात शायद यही रही कि जनता ने बहुमत के लिए वोट डाले. उत्तराखंड को अपवाद मान लें तो अन्य सभी राज्यों – उत्तर प्रदेश, गोवा, पंजाब और मणिपुर में यह साफ़ देखा जा सकता है. ऐसे में यह जानते-समझते कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, जनता ने उसे छह सीटें अधिक दीं तो इसे राहुल गाँधी के उद्यम का सम्मान ही माना जाना चाहिए.

कहना गलत न होगा कि जो हाल सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने कांग्रेस का बिहार में किया, वैसा ही राजनाथ सिंह ने भाजपा का उत्तर प्रदेश में कर दिया. बिहार में कांग्रेस आज भी थकी-हारी पार्टी नज़र आती है. उत्तर प्रदेश में भाजपा का कुछ ऐसा ही हाल है. जिस तरह कांग्रेस ने बिहार में उठने के सपने देखना भी बंद कर दिया है, वैसे ही उत्तर प्रदेश में भाजपा के हौसले पस्त नज़र आने लगे हैं. २००२ के चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी के अराजक तंत्र से क्षुब्ध होकर मायावती को वोट दिया था. इस बार जब वह मायावती की अत्मलिप्सा और भष्टाचार से नाखुश थी तो उसका ध्यान भाजपा पर होना चाहिए था, पर उसकी आशा के केंद्र में रही सपा.

यहाँ ध्यान देने योग्य है कि सपा जहाँ अपनी पुरानी छवि को बदलने के लिए डीपी यादव सरीखे लोगों से कन्नी काट रही थी वहीँ भाजपा बाबू सिंह कुशवाहा जैसों को जोड़कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश कर रही थी. जनता में जो सन्देश जाना चाहिए था, वह बखूबी गया. सबसे बड़ी बात कि यह सन्देश राष्ट्रीय स्तर पर गया और पंजाब तक में उसे मुह की खानी पड़ी. वहां जहाँ शिरोमणि अकाली दल को आठ सीटों का इजाफा हुआ और उसे फिर से सरकार बनाने का मौका मिला, वहीँ उसकी साझेदार पार्टी भाजपा को सात सीटों का नुकसान हो गया. यदि गोवा में उसकी स्थिति मजबूत रही तो उसका श्रेय कुछ हद तक कांग्रेस की निवर्तमान सरकार को और कुछ हद तक मनोहर पन्निकर को जाता है, जिन्हें पिछली बार गलत ढंग से हटा दिया गया था.

यहाँ यह गौरतलब है कि येन-केन-प्रकारेण सरकार बनाने को जनता अब अच्छे नज़र से नहीं देखती. कर्नाटक में यदुरप्पा को वहां के लोगों ने पूरी तरह अपना लिया क्योंकि उन्हें लगा कि जनता दल (स) ने उनके साथ छल किया था. अब पन्निकर के नेतृत्व वाली भाजपा को गोवा में जीता कर लोगो ने राज्यपाल एस.सी. ज़मीर की कारस्तानियों का बदला कांग्रेस से ले लिया. इसी तरह कांग्रेस के कुछ नेताओं का यह कहना कि उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग सकता है, राहुल गाँधी के पुरुषार्थ पर भारी पड़ गया. अब सभी पार्टियों को अच्छी तरह समझ लेने होगा कि यहाँ सब कुछ नहीं चलता है और न ही वे सब कुछ चला पाएंगे.

२००९ में गाज़ियाबाद की जनता ने तब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को बड़ी उम्मीद से जिताया था. जाहिर है कि वे उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा इस प्रदेश में दरकिनार हो गई थी, अब उनके गाज़ियाबाद का सांसद बनने के बाद भाजपा यहाँ से साफ़ हो गई है. निवर्तमान विधायक सुनील शर्मा को भी उनके प्रति निष्ठा का फल भुगतना पड़ा और वह चुनाव हार गए.  सुनील शर्मा ने अपनी गाज़ियाबाद सीट छोड़कर साहिबाबाद से चुनाव लड़ा था. गाज़ियाबाद में जीत सपा की होती तो भी कोई बात थी. यहाँ लोगों ने भाजपा के मुकाबले बसपा को अपनाना ज्यादा ठीक समझा, जबकि पूरे प्रदेश में लहर उसके खिलाफ थी. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के इन अपेक्षाकृत  शहरी क्षेत्रों में बसपा का पाँच में से चार सीट लेना मायने रखता है. यहाँ तीन विधानसभा क्षेत्रों में तो भाजपा दूसरे नंबर पर भी नहीं रही.

गाज़ियाबाद के अलावा पीलीभीत, आजमगढ़ और बांसगांव तीन ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं जहाँ के भाजपा सांसद अपने यहाँ से पार्टी का एक भी विधायक नहीं जीता सके. इनमे आजमगढ़ के परिणाम तो फिर भी समझे जा सकते हैं क्योकि वहां की चार सीटों पर सपा ने जीत हासिल की है, जो हवा का असर कहा जा सकता है पर बांसगांव में फिर लोगों ने भाजपा के मुकाबले बसपा को ही तरजीह दी है. स्कोर कार्ड के हिसाब से वाराणसी में डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और मेरठ में राजेन्द्र अग्रवाल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है. दोनों ही लोकसभा प्रक्षेत्रों से तीन-तीन भाजपा विधायक जीत कर आये. वाराणसी में तो पहले दो ही भाजपा विधायक थे. यहाँ ज्योत्सना श्रीवास्तव और श्यामदेव चौधरी ने अपनी-अपनी सीटें बरक़रार रखीं, जबकि रवीन्द्र जायसवाल ने यहाँ भाजपा की तिकड़ी बना दी.

महंत आदित्यनाथ के लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के दो विधायक जीत सके, जो पहले से भी विधायक रहे थे. इस तरह यहाँ स्कोर बराबरी पर रहा. दो ही भाजपा विधायक आगरा लोकसभा प्रक्षेत्र से भी जीत कर आये. भाजपा में लखनऊ से एकमात्र विजय कलराज मिश्र की रही, जिसे किसी भी तरह से वहां के भाजपा सांसद लालजी टंडन की जीत नहीं कही जा सकती है. वह तो लखनऊ उत्तरी सीट से अपने बेटे आशुतोष (गोपालजी) तक को नहीं जीता सके. वहां के दो निवर्तमान विधायक विद्यासागर गुप्ता और सुरेश तिवारी भी अपनी-अपनी सीटें नहीं बचा सके. विद्यासागर गुप्ता ने लखनऊ पूर्व की अपनी सीट कलराज मिश्र के लिए छोड़ दी थी और चुनाव लड़ने लखनऊ मध्य की सीट पर चले गए थे. कहा जा सकता है किभाजपा के शिखर नेता अटलबिहारी बाजपाई ने यहाँ जिस बिरवे को जमाया था, वह सींचे बिना सूख गया है.

उसी तरह माँ-बेटे की जोड़ी मेनका तथा वरुण गाँधी ने अपने यहाँ की कुल दस विधान सभा सीटों से सिर्फ एक को जीता कर भेजा. मेनका के आवला क्षेत्र से भाजपा एक जीत जीत हासिल कर सकी, जबकि वरुण के पीलीभीत क्षेत्र से भाजपा का खाता भी न खुला. चुनाव के दौरान ही दोनों माँ-बेटे का रवैया अलग-थलग रहा था. अपने क्षेत्र में प्रचार के प्रश्न पर तो वरुण ने यह तक कह दिया था कि वे पार्टी के चपरासी नहीं हैं.

अब २०१४ में जब अपने इन्ही महारथियों के दम पर भाजपा उत्तर प्रदेश से चुनाव मैदान में उतरेगी तो नतीजे में बहुत सुधार की उम्मीद करना व्यर्थ है. इनमे से बहुत से दिग्गज अपने-अपने क्षेत्र को छोड़ कर भाग जाएँ तो कोई बड़ी बात नहीं.

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