Ranjan Kumar Singh

सब तो थे पर भाग्य ही न था

रामाधार ने गालियां भी दीं और टिकट भी लिया

हां तो?
क्या तो?
आप कहानी सुना रहे थे ना?
सुना तो नहीं रहा था, हां, सुनाने वाला था!
तो?
तो क्या, कहानी थोड़े ही भागी जा रही है कहीं। कॉफी तो आ जाए।
मैं और झूलन जी कॉफी शॉप की अपनी मेज पर जम चुके थे और कॉफी का ऑर्डर दिया जा चुका था। बेयरा कॉफी ले आया तो मैंने एक चुस्की ली और कप को किनारे करते हुए अपनी बात कहनी शुरु की।
जैसे मैं और आप बैठे हैं आमने-सामने, उस दिन ठीक वैसे ही मैं और भेरों सिंह शेखावत जी बैठे हुए थे। दिन-तारीख तो याद नहीं, पर स्थान था 6 मौलाना आज़ाद रोड। इस भव्य कोठी को मैं बचपन से ही देखता रहा था। 43 मीना बाग पिताजी को मिला हुआ था और यह कोठी ठीक उसके सामने थी। स्कूल आते-जाते हुए या फिर साथ के मैदान में खेलते हुए हम कभी-कभार देखा करते थे वहां से गाड़ियों का काफिला निकलते हुए और यह जानते थे कि भारत के उपराष्ट्रपति यहीं रहते हैं।
अरे वाह, आप वी0पी0 हाउस के सामने रहते थे? झूलन जी ने आदतन टोका।
उनकी इस टोक का बुरा न मानते हुए मैं बचपन की चन्द यादों में खो गया। साल तो याद नहीं पर 1975 से पहले हम उस घर में रहने आ गए थे। यानी तब तक इमरजेंसी नहीं लगी थी। पिता जी को 43 मीना बाग मिला हुआ था और श्री हरि किशोर सिंह जी को 41 मीना बाग। मैं और मेरा छोटा भाई राजेश तथा अनिल और उसका छोटा भाई सलिल साथ-साथ खेलते हुए बड़े हो रहे थे। अनिल और सलिल, हरि किशोर चाचा के बेटे थे। बैडमिंटन आदि के लिए तो हमारे सामने का लॉन ही काफी था पर जब कभी हम क्रिकेट खेलने उपराष्ट्रपति भवन के पीछे के इंडिया गेट लॉन में चले जाते थे। तब सेक्योरिटी ऐसी न थी कि कोई हमें मना करता।
फिर देश में इमरजेंसी लग गई। मुझे बखूबी याद है कि जब इमरजेंसी लगी तब मैं और राजेश काठमांडू घूमने गए हुए थे। वहां से लोटे तो हमने पाया कि हमारे घर में कोई अतिथि है, जिसने मेरा और राजेश का कमरा कब्जा रखा है। अमूमन ऐसा ही होता था। जब भी कोई अतिथि आता तो हम दोनों भाई अपने कमरे से बाहर ड्राइंग रूम सें सोने को मजबूर हो जाते थे। और तब भी यही हुआ था।
हम ही नहीं, अनिल और सलिल भी अपने कमरे से बेदखल हो गए थे क्योंकि ठीक तभी उनके यहां भी कोई अतिथि आ धमका था। हालांकि कुछ दिनों के बाद एक नई बात हुई। हमारे घर के अतिथि के साथ-साथ हरि किशोर चाचा के घर के अतिथि को भी हम बच्चों के कमरों से निकाल कर बाहर के सर्वेंट क्वार्टर में शिफ्ट कर दिया गया। ऐसा होता न था। अतिथि महीनों पड़े रहते तब भी हमें अपने कमरे से बाहर ही रहना पड़ता था। तब यह समझ भी न थी कि अंदर के कमरे से किसी को बाहर के कमरे में शिफ्ट कर देना किसी की गैरत से जुड़ा हो सकता है। हम तो इतने से ही खुश थे कि हमें हमारा कमरा वापस मिल गया।
हमें इन अतिथियों के नाम तक नहीं बताए गए थे। पिताजी ने सिर्फ यही बताया था ये तुम्हारे अंकल हैं। कुछ दिनों के बाद हरि किशोर चाचा के यहां के अतिथि चले गए पर हमारे यहां के अतिथि बाहर के कमरे में बने रहे।
याद नहीं कि हमें तब यह बात पता भी चली थी या नहीं, पर अब जरूर मालूम है कि उस कमरे से निकलने के बाद पुलिस ने हमारे उन अंकल को गिरफ्तार कर लिया था। जब हम और भी कुछ जानने-समझने लगे तो उन अंकल का नाम भी मालूम हुआ। वह कोई और नहीं, एक समय के यंग टर्क चन्द्रशेखर थे, जो इमरजेंसी में पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर हमारे पड़ोस में रह रहे थे!
जब हम बड़े हुए तभी यह समझ हुई कि उन्हें इस कमरे से उस कमरे में शिफ्ट हमारी सुविधा के लिए नहीं किया गया था, बल्कि उन्हें छिपाने के लिए किया गया था। और हमारे लिए यह समझना भी कठिन न था कि हमसे उनके नाम क्यों छिपाए गए थे।
सिनेमा के रील की तरह सीन दर सीन आते-जाते चले जा रहे थे। मैं यह भी भूल गया था कि मैं झूलन जी को नई कहानी सुनाने बैठा हूं। बहरहाल, अब आप सोचते होंगे कि वह दूसरा आदमी कौन था जो हमारे घर में छिपा हुआ था? यहीं एंट्री होती है वी0पी0 हाउस की। वी0पी0 हाउस यानी विट्ठलभाई पटेल हाउस नहीं, बल्कि वाइस प्रेसिटेंट हाउस।
1997 में कृष्णकान्त अंकल भारत के उपराष्ट्रपति बने थे। पिताजी से उनका मधुर रिश्ता था। वह जब आंध्र प्रदेश के गवर्नर थे, तब उन्होंने हमारे पूरे परिवार को वहां बुलाया था। माँ और पिताजी के साथ हम सभी वहां गए थे और उनके आतिथ्य का आनन्द लिया था। मेरी दोनों बेटियां रुनझुन और रचिता भी साथ थीं। कृष्णकान्त अंकल उपराष्ट्रपति बने तो उन्होंने हमें उतनी ही आत्मीयता से वी0पी0 हाउस में बुलाया। हालांकि पिताजी तब हमारे बीच नहीं थे। पनीली आँखों से पिता जी को याद करते हुए उन्होंने माँ से कहा, शंकर होता तो उसे आज कितनी खुशी होती। किसने सोचा था कि कभी जो मीना बाग के उसके मकान में पुलिस से छिपकर रहता रहा था, वह आज पूरे गौरव के साथ उसके सामने के ही भवन में रहेगा।
अरे, ये तो वही अंकल हैं हमारे बचपन वाले! पहली बार हमने जाना कि जो दूसरे शख्स इमरजेंसी में पुलिस से बचने के लिए हमारे घर में शरण लिए हुए थे, वह कोई और नहीं, चन्द्रशेखर के अनन्य साथी और युवा तुर्कों में एक श्री कृष्कान्त थे। यह भी मार्के की बात है कि चन्द्रशेखर जी ने अपनी शरणस्थली से बाहर निकल कर जहां आत्मसमर्पण कर दिया था और जेल चले गए थे, वहीं कृष्णकान्त जी कभी पुलिस की गिरफ्त में नहीं आए और इमरजेंसी के खत्म होने तक हमारे यहां ही टिके रहे।
रंजन बाबू, कहां खो गए हैं आप? सुनाइएगा नहीं, आगे का बात। झूलन जी की इन बातों से मेरी तंद्रा टूटी।
मैंने कहा, हां, मेरा बचपन वहीं गुजरा है। बचपन से जिस वाइस प्रेसिडेंट हाउस को मैं देखता रहा था, वह अब मेरे जीवन में नया मोड़ लेकर आने को था। मैं था और मेरे ठीक सामने भेरों सिंह शेखावत जी थे। उस विशेष कमरे में सबों को नहीं बुलाया जाता था। मैं उस दिन जब उनसे मिला तो भैरों सिंह जी के मन में जाने क्या आया कि वह मेरा हाथ पकड़ इस कमरे में लेते चले आए और फिर अपनी कुर्सी पर बैठते हुए मुझे भी बैठने का इशारा किया।
मैंने गौर किया, कमरे में उनके अलावा सिर्फ दो और लोग बैठ सकते थे। मेज पर कुछ फाइलें और कुछ किताबें थी और था एक फोन। मेरे पीछे या यूं कहूं कि भैरों सिंह जी के सामने की दीवार पर महाराणा प्रताप का बहुत ही बड़ा तैल चित्र था।
भैरों सिंह जी ने मुझे चुप रहने का इशारा किया और फोन उठा कर कोई एक नंबर लगाया। एक, सिर्फ एक नंबर के लगाते ही उधर की घंटी बज उठी और फौरन फोन भी उठा लिया गया। शुरुआती कुशल-क्षेम के फौरन बाद भैरों सिंहजी ने कहा, मेरे मित्र थे शंकर दयाल सिंह जी। राज्यसभा के सदस्य भी रहे थे। उनका सुपुत्र रंजन हमारी पार्टी में है। बाकी बिहार में पार्टी क्या करती है, इससे मुझे मतलब नहीं पर औरंगाबाद की सीट आप मेरे नाम कर दीजिए। रंजन वहां से चुनाव लड़ेगा।
फिर फोन रखकर उन्होंने मुझसे कहा, आडवाणी जी से बात हो गई है। जाओ, चुनाव लड़ने की तैयारी करो।
मुझे यह समझते देर न लगी कि भैरों सिंह जी के साथ हॉट लाईन पर भारत के उप प्रधानमंत्री थे। वही तब भाजपा के अध्यक्ष भी थे। इसके बाद संशय की कोई गुंजाइश कहां थी? भैरों सिंह जी का यह आदेश पाकर कि जाओ, चुनाव की तैयारी करो, मैं जब कमरे से बाहर निकलने को हुआ तो लगा मानो महाराणा प्रताप स्वयं आशीर्वाद देते सामने खड़े हों।
ऐं, भैरों सिंह और आडवाणी जी, दोनो के रजामंदी के बादो आपका टिकट कट गया?
हां, कट ही तो गया। मैं वाकई राजनीति का अनाड़ी था। राजनीतिक दाव-पेंच से मेरा कोई वास्ता न था। नवभारत टाइम्स की नौकरी छोड़ने के बाद जब मैं राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय हुआ तो मेरा पहला अभियान था लालू राज के खिलाफ। बिहार को बदलाव चाहिए, इस नारे के साथ मैं पूरे बिहार में घूम रहा था। इस क्रम में मैंने लालू के जंगल राज के खिलाफ लोगों को तैयार करने का काम तो किया ही, उनके मत भी लेता रहा। जैसा कि अमूमन होता है, किसी छपे-छपाए ज्ञापन पर लोगों के हस्ताक्षर ले लिए जाते हैं। पर मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने लोगों से कहा कि आप अगर सचमुच बदलाव चाहते हैं तो खुल कर उसके खिलाफ लिखिए-बोलिए। चुप रहने से कुछ नहीं बदलेगा। बदलाव के लिए मुखर होना जरूरी है। यह वह दौर था जब लोग डर कर चुप रह जाते थे। पर मैंने उन्हें हिम्मत दी और लोगों ने खुलकर लिखा और उसपर अपने हस्ताक्षर भी किए।
इसी बीच श्री गोपाल नारायण सिंह बिहार भाजपा के अध्यक्ष बनाए गए। मैं तब विजय द्वार नामक पत्रिका के लिए लिखा करता था और उसमें लालू राज की अराजकता पर मेरे आलेख लगातार छप रहे थे। इसी क्रम में मैं गोपाल नारायण सिंह जी से उनके साक्षात्कार के लिए मिला। साक्षात्कार के बाद चायपानी करते हुए उन्होंने मेरा परिचय जानना चाहा और यह जानकर कि मैं स्व0 शंकर दयाल सिंह का पुत्र हूं, बहुत खुश हुए। मेरी गतिविधियों के बारे में जानने के बाद उन्होंने मुझसे भाजपा में शामिल होने के लिए कहा तो उस समय मैं इसपर कोई निर्णय नहीं ले सका।
कर्ण सिंह जी चाहते थे कि मैं कांग्रेस में शामिल हो रहूं और वह मुझे अपने साथ ले जाकर आला कमान से मिलाने के लिए भी तैयार थे। पर कांग्रेस बिहार में लालू जी के साथ थी और मैं उसके खिलाफ। इसलिए मेरा मन नहीं मानता था। औरंगाबाद के मेरे मित्र सुरेन्द्र मोहन को जब मालूम हुआ तो उन्होंने मुझे भाजपा में ही शामिल होने की सलाह दी। वह 1984 के चुनाव में पिताजी के एलेक्शन एजेंट रहे थे और खुद विधानसभा चुनाव भी लड़ चुके थे। मुझे भी लगा कि भाजपा से जुड़ कर मैं लालू विरोधी अभियान को ज्यादा बल दे सकूंगा। भाजपा में रूडी जी तो मेरे मित्र थे ही, सुशील मोदी जी, नन्दकिशोर यादव जी और रविशंकर प्रसाद जी से भी मेरे अच्छे संबंध थे। इन चौरों को मैंने ईटीवी के आमने-सामने कार्यक्रम में शामिल भी किया था। सो मैंने गोपाल नारायण सिंह जी से फिर मिलकर पार्टी में शामिल होने की स्वीकृति दे दी और उनके सामने ही औरंगाबाद के अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा में शामिल हो गया।
गोपाल नारायण सिंह जी मेरे साथियों के उत्साह से बेहद प्रभावित हुए और उसी दिन उन्होंने मुझे पार्टी का सक्रिय सदस्य भी बना दिया।
ऐ जी, भारत के उपराष्ट्रपति जी आपके साथ, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी आपके साथ, प्रदेस के पार्टी अध्यक्ष जी आपके साथ, तभियो आप टिकट नहीं ले सके? झूलन जी के स्वर में मुझे अपने लिए लानत महसूस हुई।
हां, आपने सही कहा। सब के सब मेरे साथ थे पर शायद मेरा भाग्य ही मेरे साथ न था। दरअसल, गोपाल नारायण सिंह पर मेरा भरोसा ही मेरे खिलाफ हो गया।
सो कैसे?
यह समझने के लिए आपको और बहुत सी बातें जाननी होंगी।
यह कहते हुए मैंने कॉफी का प्याला फिर से अपने पास सरका लिया। कॉफी बिलकुल ठण्डी हो चुकी थी। एक घूंट में ही मैने उसे गले के नीचे उतार लिया और फिर कहानी का सिरा टटोलने में लग गया। झूलन जी बिना कुछ बोले मेरी ओर इकटक ताक रहे थे।
मैंने बोलना जारी रखा, गोपाल बाबू प्रदेश अध्यक्ष तो बन गए पर उनमें और सुशील मोदी में भारी तनातनी थी। सुशील मोदी जहां भाजपा को जदयू की बैसाखियों पर बनाए रखना चाहते थे, वहीं गोपाल बाबू चाहते थे कि भाजपा राज्य में अपने पैरों पर खड़ी हो। इस मामले में मेरे विचार गोपाल बाबू से मेल खाते थे।
उधर लालू के खिलाफ मेरा अभियान जारी तो था, पर भाजपा में शामिल होने के बावजूद मैं व्यक्तिगत सामर्थ्य से ही इसे चला रहा था। मैंने इस अभियान के लिए खास तौर पर रथ बनवाया था, जो जीप को आधार बनाकर तैयार की गई थी। उसकी दोनों ओर बड़े-बड़े होर्डिंग लगे थे। एक पर लालू जी को हेलिकॉप्टर में बैठकर मछली मारते हुए दिखाया गया था, जबकि बाढ़ पीडित नीचे त्राहिमाम कर रहे थे।
वाह भाई वाह! क्या खूब कार्टून बनवाए थे आपने। हमको भी याद है, ऊ पर कुछ लिखा भी हुआ था। झूलन जी बोल पड़े।
हां, सही याद है आपको। उसपर लिखा था, रोहू-कतला खाओ, बाढ़ के गुण गाओ।
ठीके लिखे थे। लालू बोला तो था इहै बात कि बाढ़ में फंसे हो तो का? रोहू-कतला तो खाने को मिलेगा ना!
और जीप की दूसरी ओर क्या कार्टून था, यह भी आपको याद होगा? मैंने पूछा।
पूरा तो नहीं, पर हेमा मालिनी को लेकर कुछ था, ई याद जरूरे पड़ता है।
बिलकुल सही याद है। उसमें लालू जी को मैग्नीफाइंग ग्लास से हेमा जी की गाल को देखते दिखाया गया था। और लालू जी कह रहे थे, हेमा के गाल अइसन है तो हम का करीं!
वाह भाई, मान गए आपके व्यंग को। लालू तो बोलबे किए थे कि बिहार के सड़क को हेमा मालिनी के गाल जेतना चिक्कन बना देंगे पर ऊ हुआ कहां?
सही है। तो मैं बता रहा था कि लालू जी की ही भाषा में जनता को उनकी नाकामियों को बताने की कोशिश में मैं बिहार का दौरा कर रहा था पर भाजपा से इसपर सहयोग मिलने की बजाय, मेरा विरोध ही देखने को मिला। दरअसल, जो लोग पार्टी में किसी न किसी नेता का झोला उठाकर ऊंचे पदो तक पहुंचे थे, उन्हें लगता था कि कोई योग्य व्यक्ति आकर उन्हें अपदस्थ न कर दे। मैंने गौर किया, इनमें वैसे लोग ही थे जो सुशील मोदी के चाटुकार थे। उन्हें इस बात की खुशी नहीं थी कि कोई व्यक्ति लालू के खिलाफ जनमत तैयार करने में लगा है, बल्कि यह डर कहीं ज्यादा सताता था कि कहीं वह इस कोशिश में सफल न हो जाए।
ऐं, अइसा भी होता है?
हां, ऐसा ही होता है और यह समझने में मुझे बहुत वक्त लगा। उस समय तो मैं अकेला ही चलता रहा और सच कहूं तो मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर लोग आते गए, कारवां बनता गया। आज भी मेरे पास हजारों लोगों के लिखित बयान हैं जो उन्होंने मेरे अभियान के समर्थन में या फिर लालू के जंगल राज के विरोध में लिखे थे।
इसी बीच एक और वाकया हुआ। औरंगाबाद के मदनपुर क्षेत्र में एक बच्चे का अपहरण हो गया और माँ-बाप द्वारा फिरोती न दे पाने की वजह से उसे मार डाला गया। मामला चूंकि औरंगाबाद से जुड़ा हुआ था, इसलिए मैं वहां पहुंचा और शोक संतप्त परिवार से मिलकर उसे अपनी संवेदनाएं दीं।
रंजन बाबू, याद पड़ता है कि पहिला बार हम आपको उसी दिन देखे थे। आपका भासन ऊंहां हुआ था, सो भी हमको याद है।
हां, उसी दिन पार्टी की ओर से विरोध कार्यक्रम का आयोजन किया गया था और यह जानकर कि मैं भी वहां पहुंचा हुआ हूं, सबों ने मुझे बुला लिया था। चूंकि बच्चे के परिजनों की पीड़ा से मेरा मन भरा हुआ था, सो मेरे मन का गुस्सा भाषण के तौर पर छलक आया था। उसी दिन जिला भाजपा के अनेक लोगों से मेरा परिचय भी हुआ और उन्होंने मुझे औरंगाबाद से विधानसभा के लिए सशक्त उम्मीदवार के रूप में देखना शुरु किया।
तब औरंगाबाद से भाजपा चुनाव हार चुकी थी और पूर्व विधायक रामाधार सिंह को बहुतेरे लोग नहीं चाहते थे। हालांकि अपने स्वभाव की वजह से उन्होंने जिले के शीर्ष नेतृत्व को नाराज कर रखा था पर कुछ ऐसे लोग भी थे जिनका उन्होंने भला किया था और जो उनके लिए मरने-मारने को तैयार रहते थे। इनमें मनिका के अनिल जी और एकौना के राजेन्द्र जी को आप जरूर जानते होंगे। इनके अलावा सढ़ैल के धीरेन्द्र और करमा के पुरुषोत्तम जी भी उसी के साथ थे।
इस तरह एक तरफ रामाधार समर्थक थे तो दूसरी ओर रामाधार विरोधी। दोनों के बीच तलवारे खिंची हुई थीं। अपनी नादानी की वजह से तब मैं यह बात नहीं समझ पाया पर अब जानता हूं कि इन दोनों के बीच मैं फंस गया या मुझे फंसा दिया गया।
झूलन जी पूरे ध्यान से मुझे सुन रहे थे।
मैंने कहना जारी रखा, मैं तो तब यह भी नहीं जानता था कि प्रदेश स्तर पर गोपाल नारायण सिंह और सुशील मोदी दो अलग-अलग धुरि हैं और मेरे अपने जिले औरंगाबाद में भी दोनों के गुट अलग-अलग काम कर रहे हैं। दरअसल, प्रदेश अध्यक्ष का दौरा औरंगाबाद का बना और मुझे भी वहां रहने के लिए कहा गया।
मैं नियत समय पर तथा नियत स्थान पर जा पहुंचा। थोड़ी देर में वहां गोपाल बाबू भी आ पहुंचे। इसके बाद जो हुआ, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था। पत्रकार के तौर पर मैंने गुटबाजी देखी थी और नेताओं के आपसी वैमनस्य से भी परिचित था पर यहां जो हुआ, उसकी कल्पना मैंने नहीं की थी। शायद इसलिए भी नहीं कि इससे पहले तक तो मैं खबरनबीस के तौर पर तटस्थ रहकर रिपोर्टिंग करता रहा था, पर यहां मैं खुद भी उसका अंग या सहभागी हो गया था। प्रदेश अध्यक्ष के वहां पधारते ही उनके खिलाफ जमकर नारेबाजी शुरु हो गई। किसी तरह वह भीतर पहुंचे और सबों को मना कर बैठाया भी तो बात-बात पर तकरार होती रही। मेरे लिए यह समझना अब मुश्किल न था कि प्रदेश स्तर पर जो दो अखाड़े बने हुए थे, उनका फैलाव मेरे खुद के जिले में भी था। सुशील मोदी के भक्त के तौर पर जिले में रामाधार सिंह ने नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ कमान संभाल रखी थी।
नारेबाजी जल्दी ही गाली-गलौज में तब्दील हो गई। रामाधार के साथ के लोगों ने गोपाल बाबू के लिए ऐसी-ऐसी गालियां निकालीं जिनका उच्चारण भी मेरे लिए संभव नहीं। मैं क्या करता, ठगा सा बैठा रहा। बात यहीं तक रहती तो शायद ठीक था पर ताव में आकर कुछ लोग गोपाल बाबू पर हाथ उठाने को लपके। अब मुझसे रुकते न बना और मैं कुछ अन्य लोगों के साथ ढाल बनकर वहां खड़ा हो गया।
कौन लोग था गाली-गलौच करने वाला, हमहूं तो जानें? झूलन जी ने जानना चाहा।
पर नाम उछालने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैंने इतना ही कहा, छोड़िए उनको। बस इतना जान लीजिए कि गोपाल बाबू को बचाने वालों में मेरे साथ नबीनगर के रामचन्द्र सिंह और कुटुम्बा के अनिरुद्ध सिंह शामिल रहे।
आप भले मत बताइए। हम उनका से ही पूछ लेंगे।
ठीक है, वे बता दें तो बता दें पर आगे की कहानी तो मुझे ही बतानी होगी।
हां, हां, आप ही ना बताइएगा।
तो उस दिन गोपाल बाबू किसी तरह अपनी जान बचाकर औरंगाबाद से निकल सके।
पूरा फजीहते न हो गया। झूलन जी ताना मारने से कब बाज आने वाले थे।
प्रदेश अध्यक्ष से इस तरह पेश आने के बाद भी वे लोग बच तो गए पर आगामी विधान सभा चुनाव के लिए मेरे नाम पर अब ज्यादा गंभीरता से विचार किया जाने लगा।
तब भाजपा के जिला अध्यक्ष अम्बा के डा0 रामलखन विश्वकर्मा थे और वह स्वयं भी रामाधार जी के प्रखर विरोधी थे। उनके उज्जड़ स्वभाव तथा स्वार्थी व्यवहार की वजह से सभी पुराने लोग रामाधार जी से नाराज रहते थे। भाजपा के पूर्व जिला अध्यक्ष श्री अवध किशोर सिंह, पूर्व जिला अध्यक्ष प्रो0 गोविन्द सिंह, पूर्व जिला उपाध्यक्ष श्री इंद्रदेव नारायण सिंह सब के सब उनसे नाराज थे। ऐसे में जब विधानसभा चुनाव के लिए जिले से संभावित उम्मीदवारों के नाम मांगे गए तो जिला इकाई ने रामाधार सिंह की उम्मीवारी पर विचार न कर के मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया। अगर मेरी याद्दाश्त मुझे धोखा नहीं दे रही है तो मेरे साथ दूसरा नाम सलैया के डा0 शंकर दयाल सिंह का था। जबकि जिले से भेजी गई सूची में रामाधार सिंह का उल्लेख भी न था।
ए लीजिए। उपराष्ट्रपति आपके साथ, राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर प्रदेश औउर जिला अध्यक्ष आपके साथ तो पर भी टिकट रामाधार को! ऊ भी जब उसका नामों नहीं था। झूलन जी ने मेरे जले पर नमक छिड़क ही दिया।
यही तो, मैंने कहा। सब कुछ था मेरे साथ, विरासत थी, योग्यता थी, समर्थन था, आशीर्वाद था, पर राजनीति के गुर मैं नहीं जानता था। छांटो-काटो, ठोको-पीटो में मैं न तब पड़ता था और न अब पड़ता हूं। विरासत में मुझे सौम्यता मिली है और सौम्य बने रहने की जिम्मेदारी भी। मैं वही निभाता रहा और मेरा टिकट कट गया।
यह कह कर मैं उठने को हुआ तो झूलन जी बोले, एक बात तो रहिए गया। आप बोले थे कि आपने गोपाल बाबू पर भरोसा किया और यही आपके खिलाफ हो गया। सो कैसे?
हां, इस कहानी को जानने के लिए हमें पटना और दिल्ली चलना होगा। औरंगाबाद से सूची के पटना और फिर दिल्ली पहुंचने के बाद की कहानी में अनकों ट्विस्ट हैं पर वह कहानी कभी और।
यह कह कर मैं उठ खड़ा हुआ और इससे पहले कि झूलन जी आगे की कहानी कहने की जिद्द पकड़ते, मैं कॉफी का पेमेंट कर के बाहर की तरफ बढ़ गया।

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