लक्ष्य था कम से कम 20 पदक लेना, पर मिले केवल दो और पदक तालिका में हम 67वें स्थान पर रह गए। इससे पहले हमने चाहा था 125 पदक लेकर ग्लासगो राष्ट्रकुल खेलों में अपना तीसरा स्थान सुनिश्चित करना, पर मिले सिर्फ 64 और हमें पांचवे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। इसी तरह इचीयोन एशियाई खेलों के लिए हमने लक्ष्य रखा था 75 पदक बटोर कर पदक तालिका में पांचवें स्थान पर रहने का, पर रहे हम आठवें स्थान पर और पदक मिले कुल 57। ये लक्ष्य व्यक्तिगत तौर पर तैयार किए गए नहीं है, बल्कि इनका निर्धारण भारत सरकार ने खुद किया है। यह ओलंपिक खेलों में प्रतिभा के विकास के लिए तैयार की गई उसकी योजना का हिस्सा है। मतलब यह कि हमारा युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय मंसूबे तो जरूर बनाता है आसमान में सुराख करने के, पर एक पत्थर भी तबीयत से नहीं उछाल पाता! अब भारत सरकार का यह मंत्रालय मंसूबे पाल रहा है 2018 में गोल्ड कोस्ट (आस्ट्रेलिया) में होने वाले राष्ट्रकुल खेलों में पदक तालिका में दूसरे स्थान पर रहने का और उससे अगले साल हनोई में होनेवाले एशियाई खेलों में अपना ‘पाँचवाँ स्थान’ सुरक्षित रखने का (हालांकि अब तो उसे पाँचवाँ स्थान बरकरार नहीं रखना, बल्कि पांचवें पायदान पर पहुंचना है)। इतना ही नहीं, बल्कि अगले ओलंपिक में तो वह पदक तालिका में पहले दस पायदान पर रहना चाहता है।

मंसूबे देखना बुरा नहीं है, पर इसके लिए जरूरी है कि मंसूबा सिर्फ मंशा न होकर जज्बा बन जाए जोकि अभी नहीं दिखता। हां, गोपीचन्द में यह जज्बा था और इसीलिए वह अपनी शागिर्द पी0वी0 सिंधु में वह जज्बा भर पाए। इसी तरह बिश्वेश्वर नन्दी में भी जज्बा था और तभी उनकी शिष्या दीपा करमाकर में भी कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा हो सका। बल्कि नन्दी ने तो बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से दीपा को जानलेवा प्रोदुनोवा के लिए तैयार किया क्योंकि वह जानते थे कि तभी वह इस अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में टिक भी सकेगी। नतीजा हमारे सामने है। दूसरी ओर हमारे खेल अधिकारियों में जज्बे की कौन कहे, सूझबूझ भी देखने को नहीं मिलती। लक्ष्य और उपलब्धि के इस घोर अन्तर के बावजूद सरकार और विभाग में सबकुछ ज्यों का त्यों चलता रहता है। न कहीं कोई इसकी जिम्मदारी लेता है और ना ही किसी पर कोई गाज गिरती है।

आप मानें या न मानें, विकास और खेलकूद का सीधा संबंध है। किसी देश के विकास के लिए खेलकूद का माहौल उतना ही मायने रखता है, जितना कि औद्योगिकरण। खेलों की पदक तालिका में किसी देश का विकास देखा जा सकता है। ओलंपिक खेलों की पदक तालिका में ऊपर के दस देशों को जरा देख लें – संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, चीन, रूस, जर्मनी, जापान, फ्रांस, उत्तर कोरिया, इटली तथा आस्ट्रेलिया। चीन को छोड़कर ये सभी विकसित देशों की कतार में खड़े हैं, जबकि चीन विकासशील देशों में सर्वाधिक विकसित है। दूसरी तरफ जरा उन देशों को भी देखें, जिन्होंने इस ओलंपिक में कोई पदक नहीं जीता – अफगानिस्तान, अंगोला, बांग्लादेश, भूटान, कांगो, एल सल्वाडोर, घाना, गुआना, मोजाम्बिक, यहां तक कि पाकिस्तान भी। सूची बहुत लम्बी है। बस इतना जान लेना काफी होगा कि कुल 206 प्रतिभागी देशों में पदक मिला केवल 78 को। जिन्हें नहीं मिला, उनमें अधिकतर विश्व के अल्प विकसित देशों में शामिल हैं। कहने की जरूरत नहीं कि भारत को अभी मानव संसाधन के विकास की दिशा में बहुत कुछ करने की जरूरत है। सवाल है कि इसपर हमारा ध्यान है कितना? हम तो आज भी मानव को हिन्दू और मुसलमान या फिर अगड़े और पिछड़े में बांटकर उसका विकास करने की कोशिश कर रहे हैं। इससे एक तरफ जहां अक्षमता एवं अयोग्यता को बढ़ाने में हमारे संसाधनों का ह्रास हो रहा है, वहीं दूसरी ओर योग्यता की उपेक्षा होने से प्रतिभावान लोग कुण्ठा का शिकार हो रहे हैं।

गनीमत है कि खेलों में अब तक यह स्थिति नहीं आई है और खेलों के लिए जातीय आधार पर चयन नहीं होता। लेकिन कुण्ठित मन योग्यता के बावजूद अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाता, यह भी तो सच है। कुण्ठा का शिकार मन या तो निराशा और हताशा के भंवर में जा फंसता है, या फिर अपराध के कुचक्र में। मानव संसाधन विकास के लिए किसी व्यक्ति या वर्ग को भरपूर अवसर देना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है योग्यता की पहचान कर उसका सम्मान करना। दोनों में से अगर एक भी शर्त पूरी न हो, तो फिर मानव संसाधन का विकास अधूरा रह जाता है। अफसोस कि हमने दलित एवं कमजोर वर्गों को अवसर देने मात्र को अपनी भूमिका का निर्वाह मान लिया और योग्यता की उपेक्षा करते रहे। इसी का नतीजा है कि भारत से प्रतिभा का पलायन होता रहा। हमारी प्रतिभाओं का लाभ अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया आदि देश जमकर उठाते रहे और हम उनसे वंचित रहे।

हमने इंजीनियरी, डाक्टरी, कम्प्यूटर आदि को महज नौकरियां समझ लीं, उन्हें कौशल नहीं माना। और नौकरियां तो मिल जाती हैं सर्टिफिकेट दिखाकर। ऐसे में हमारा पूरा जोर सर्टिफिकेट हासिल करने पर रहा, न कि कौशल बढाने पर। फर्जी सर्टिफिकेट या फिर आरक्षण के आधार पर लोगों को नौकरियां तो मिल गई, पर देश में मानव संसाधन का विकास नहीं हो सका। खेलकूद में अब भी कौशल की पूछ है, इसलिए यहां कुछ उम्मीद बंधती है। ओलंपिक टीम में अपनी जगह बनाने के लिए किसी मेरी काम को आरक्षण का सहारा नहीं लेना पड़ता। भारतीय हाकी टीम में अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए किसी डुंगडुंग को अपने आदिवासी होने का प्रमाण नहीं जुटाना पड़ता। भारत का झंडा उठाने के लिए किसी नरसिंह यादव को अपने पिछड़ा होने की दुहाई नहीं देनी पड़ती। किसी विनोद कांबली को भारतीय टीम में इस कारण स्थान नहीं मिल जाता कि वह दलित है। चयन के कुछ विवादों को छोड़ दें तो सच यही है कि यहां सब के सब अपनी योग्यता और हुनर के दम पर आते हैं और इसलिए उसे निखारने में लगे रहते हैं।

दुर्भाग्यवश जो काम हमें नौकरी की गारंटी देते हैं, उन्हें हमने कौशल नहीं समझा और जिन्हें हमने कौशल माना, वे हमें नौकरी की गारंटी नहीं देते। एक तरफ जहां कुशलता की अनदेखी कर महज सीटें भरी जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर सीटों के अभाव में योग्य लोग अपना कौशल बढ़ाने से परहेज कर रहे हैं। दोनों ही स्थितियां कौशल विकास के आड़े आती हैं। जाहिर है कि अगर ज्यादा से ज्यादा मौके होंगे तो ज्यादा से ज्यादा लोग आगे बढ़ेंगे। हमारी सरकारों का पूरा जोर सीटों को भरने पर रहा, ना कि उन्हें बढ़ाने पर। इससे राजनैतिक दलों का अपना वोट बैंक बेशक बढ़ा हो, पर देश का सिर्फ अहित हुआ। हालांकि इसे लेकर किसी राजनैतिक दल को चिन्ता है, ऐसा कभी नहीं लगता । भारतीय राजनीति की नीति रही है – अपने हित साधन के लिए किसी का अहित भी हो तो हर्ज क्या है? ऐसे में हम सरकार से भला क्या अपेक्षा रखें? विडम्बना है कि वोट बैंक बनकर ही आप सरकार पर दबाव बना सकते हैं, नही तो आपकी ऐसी की तैसी!

जो हाल मानव संसाधन विकास का है, वही हाल खेलों का भी है। कोई बिश्वेश्वर नन्दी अगर त्रिपुरा में अभावों के बीच किसी दीपा करमाकर को इतनी ऊंचाई तक पहुंचा सकता है तो क्या कारण है कि उससे अच्छी सुविधाओं के रहते हमारे राष्ट्रीय खेल संस्थान एक भी विश्वस्तरीय जिमनास्ट नहीं पैदा कर पाते? गोपीचन्द अकादमी अगर इतने थोड़े समय में इतने सारे ओलंपियन पैदा कर सकता है तो फिर इतने सारे सरकारी संस्थान इतने लम्बे समय में इतने कम ओलंपियन क्यों पैदा करते हैं? इसका बड़ा कारण सरकारी मशीनरी में निष्ठा की कमी कही जा सकती है। निष्ठा के अभाव की वजह से ही ये संस्थान खुद से ही लक्ष्य बनाने के बाद भी लक्ष्य पर नजर नहीं रख पाते और उससे बेहद दूर रह जाते हैं। कोई खिलाड़ी जब अपने बल-बूते अपनी पहचान बना लेने में सफल हो जाता है तो खेल संगठन और सरकारें उसकी सफलता में खुद को भागीदार साबित करने में लग जाते हैं, जबकि उसकी खेल साधना में शायद ही कोई उसके साथ खड़ा नजर आता है।

इस बार की दोनों पदक विजेता साक्षी मलिक और पी0पी0 सिंधु इस मायने में सौभाग्यवती हैं कि उन्हें समाज का नहीं भी तो परिवार का भरपूत साथ मिला। दोनों ही ऐसे परिवारों से आती हैं, जिसकी रगों में खेल है। साक्षी के दादा खुद पहलवान थे और कुश्तियां लड़ते थे, जबकि सिंधु के माता-पिता दोनों ही बास्केट बाल खिलाड़ी रहे और पिता पी0वी0 रमन को तो अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इसी तरह रियो ओलंपिक में अपने हैरतअंगेज प्रदर्शन से सबों को चकित कर देनेवाली दीपा करमाकर को भी खेल विरासत में ही मिला। उसके पिता भारोत्तोलन के कोच रहे हैं। यानी ये सभी अपनी-अपनी पारिवारिक परम्परा का निर्वाह करते हुए ही खेल जगत में पहुंचे, अन्यथा खेल को अपना पहला विकल्प मानने वाले लोग इस देश में हैं ही कितने? और मानें भी तो क्यों और कैसे? इसमें युवाओं को कहीं कोई भविष्य दिखाई भी तो दे। पदक जीतने के बाद सिंधु और साक्षी को करोड़ों देने के लिए सरकारें कतार बांधे खड़ी हैं, पर घायल होकर ओलंपिक से लौटी विनेश फोगाट को देखने-भालने वाले कितने हैं? पुरस्कार और प्रोत्साहन में बड़ा फर्क है। जिस तरह बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री के लिए विजोता खिलाड़ियों का उपयोग विज्ञापनों में करती हैं, वैसे ही ये सरकारें भी लोकतंत्र के बाजार में खुद को चमकाने के लिए पुरस्कार बांटने का काम करती हैं। कल्याणकारी राज्य का काम विजेताओं को पुरस्कृत करना भर नहीं है, बल्कि विजेता बनने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना भी है। इस दूसरे कर्तव्य की तरफ सरकार का ध्यान कतई नहीं होता।

भारत में खेलों की तरफ प्रतिभाएं अगर आकर्षित नहीं हो रहीं तो इसके दो अहम कारण भविष्य के प्रति चिन्ता और प्रोत्साहन की कमी है। हम जब देश की आजादी के अनुपात में खेल में मेडल पाने की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि 120 करोड़ की आबादी वाले इस देश में शायद 1.2 करोड़ भी नहीं जिन्हें खेलों से मतलब हो। वास्तविक खिलाड़ियों की संख्या तो और भी कम होगी। देश में खेल प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने के लिए क्या किया जा रहा है, इसका कुछ एहसास तो हमें ओलंपिक, एशियाड आदि में अपनी असफलताओं से लग जाता है, पर यहां यह देखना भी दिलचस्प होगा कि खेलों के प्रति प्रतिभाओं को आकर्षित करने के लिए क्या कुछ किया जा रहा है। सरकार की योजना थी सभी ग्राम पंचायतों में खेल का मैदान तैयार करने की। हुआ क्या? योजना थी सभी प्रखंडो में क्रिड़ा केन्द्र खोलने की। किया क्या? योजना थी सभी जिलों में खेल संस्थान स्थापित करने की। बने क्या? किसी ने कभी यह जानने तक की कोशिश नहीं की कि 2013 में बनी इन योजनाओं का क्या हुआ? पूछने पर जवाब होगा, खेलकूद राज्यों का विषय है। हम कर ही क्या सकते हैं? यदि नहीं कर सकते तो मंसूबे क्यों बांधते हैं? विडम्बना तो यही है कि जो किया नहीं जा सकता उसके लिए सेमिनार होते हैं, विदेशी दौरे होते हैं, योजनाएं बनती हैं और जो किया जा सकता है, उसपर कोई ध्यान तक नहीं दिया जाता।

ओलंपिक की पदक तालिका में किसी देश का स्थान उसे गर्व और गौरव का एहसास कराता है। फिर अपने गर्व और गौरव को बढ़ाने के लिए हम क्या करते हैं? हर एशियाड और ओलंपिक हमें सबक दे जाते है, पर हम उससे कुछ नहीं सीखते। देखना यह है कि 2020 के तोक्यो ओलंपिक में हम अपना गौरव बढ़ाने में कितना कामयाब हो पाते हैं। वैसे इससे पहले हमें एशियाई तथा राष्ट्रकुल खेलों में भी खेलना है।

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