Ranjan Kumar Singh

आजकल आप कहां हैं?

वे बहुत दिनों बाद मिले थे सो उन्होंने पूछा, आज कल कहां हैं आप?
दिल्ली एनसीआर में. मैंने संक्षिप्त जवाब दिया।
मेरा मतलब था, किस पार्टी में हैं आप? उन्होंने अपना सवाल समझाते हुए फिर से पूछा।
टेक्निकली स्पीकिंग, भाजपा में क्योंकि यहां से न निकला हूं, ना निकाला गया हूं।
गोल-गोल न बोलिए, मतलब समझाइए, उन्होंने कुरेदा।
मैंने तब उन्हें तफसील से बताया कि जब पर्ची काट कर मेंबर बनते थे और बनाते थे, तब मैं भी मेंबर बनता था और बहुतों को बनाता था। इतना कि सक्रिय सदस्यता भी हासिल रहती थी। फिर मिस्ड कॉल के जमाने में मिस्ड कॉल देकर भी मेंबर बन गया। मिस्ड कॉल दिलवाकर बहुतों को मेंबर बनाया भी। अब न तो किसी को नए सिरे से मेंबर बनना होता है, न बनाना होता है। इसलिए मैं जहां का तहां हूं।
उन्होंने सवालिया नजरों से मेरी ओर देखा और मैंने उनकी बात समझ कर अपनी बात को आगे बढ़ाया। हां, यह सही है कि मन से अब मैं उस पार्टी के साथ नहीं हूं। संघर्ष के दिनों में मैं साथ-साथ रहा, पर सत्ता में आने पर मैंने महसूस किया कि वहां बहुत कुछ बदल गया है। बदलता ही जा रहा है। पहले हम अशोक रोड कार्यालय में अधिकार पूर्वक चले जाते थे, जिससे मन करता था, बेरोक-टोक मिलते थे। अब न वह ऑफिस रहा और न लोग। नए ऑफिस में सब कुछ पराया जान पड़ता है और किसी से भी मिलना हो तो दसियों पापड़ बेलने पड़ते हैं। सत्ता का नशा हर कोने में और हर किसी पर दिखाई देता है। बिल्डिंग आलिशान हो गई है जबकि उसमें बैठने वाले लोग छोटे नजर आने लगे हैं। जैसे-जैसे वोट बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे दूरियां भी बढ़ती जा रही हैं। कार्यकर्ताओं की खोज चुनावों में होती है, बाकी उन्हें कोई पूछता नहीं।
उन्होंने शरारती अंदाज में मुझे छेड़ा, पर आपने तो साईकिल छाप पर चुनाव लड़ा था?
हां, यह सच है। समाजवादी पार्टी ने मुझे अपना उम्मीदवार बनाया था और मैं लड़ा भी था।
फिर आपने उसे छोड़ा ही क्यों? मैंने महसूस किया कि वह मुझे और कुरेदना चाह रहे हैं।
इसकी भी कहानी है। पर बात तफसील से करनी पड़ेगी।
वे भी आज पूरे मूड में ही थे और मुझे पूरा खुरच कर ही मानने वाले थे। हम दोनों पास की चाय गुमटी पर चले आए और उन्होंने दो चाय मंगवाई।
आप पीजिए, मैं चाय नहीं पीता। मैंने उन्हें बतलाया तो उन्होंने अपने ऑर्डर को सुधार कर एक चाय कम करा दी। फिर चाय की चुस्की लेते हुए मेरी ओर देखा।
कहानी यह है कि मैं तो हमेशा से लीक पर रहा, पर जिस पार्टी में भी मैं गया उसने ही लीक बदल ली। जैसे जनता के सवालों से जुड़कर मैंने भाजपा का दामन थामा तो वह जनता के सवालों से ही कट गई। लालू जी के विरोध में मैंने सपा के हाथ में अपना हाथ दिया तो वह लालू जी के साथ ही चली गई। जब तक वह लालू जी के विरोध में डटी थी, मैं उसके साथ था, फिर वह लालू जी के साथ हो गई तो मैने उससे अपना नाता-रिश्ता तोड़ लिया।
मेरी बातों से उन्हें कुछ उत्सुकता हुई। वह चाय की चुस्कियां लेते रहे और मुझे आगे बोलने का इशारा आँखों ही आँखो में करते रहे।
मैंने कहा, मुझे आज भी याद है जब मुझे सपा और राजद के मिलने की खबर मिली तो तुरन्त मैंने अपना इस्तीफा मुलायम सिंह जी को फैक्स किया। तब ट्वीटर और ईमेल या वाट्सऐप का जमाना न था। फैक्स ही चलता था। पर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब इसके आध-एक घंटे बाद ही उधर से मुलायम सिंह जी का फोन चला आया और वे मुझे बताने लगे कि किन हालात में दोनों दलों को एक होना पड़ा।
मैंने देखा कि अब वह चाय के साथ-साथ मेरी बातों का भी मजा लेने लगे थे। मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई और उन्हें वही कहा जो मैं दिल से मानता हूं।
मैं बोला, मुझे मुलायम सिंह जी फोन करते, इसकी कोई जरूरत न थी। कहां वे देश के रक्षा मंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और कहां मैं उनकी ही पार्टी की बिहार प्रदेश इकाई का अदना सा महासचिव। उन्हें क्या जरूरत थी मुझे सफाई देने की। यह फैसला ऊपर का था और हरेक पार्टी यह मानकर चलती है कि ऊपर से तय की गई हर बात उसके नीचे से नीचे के कार्यकर्ताओं को स्वीकार होगी। फिर भी उन्होंने फोन कर मुझे अपनी तरफ से स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की, यह उनका बड़प्पन है और आज की राजनीति में मैं इस बड़प्पन का लोप होते देख रहा हूं।
बहरहाल, मैंने उनसे कहा कि मेरी राजनीति की धूरि तो लालू विरोध से शुरु होती है और लालू विरोध पर ही खत्म होती है। ऐसे में मेरा अब इस पार्टी में बने रहना संभव न होगा। मैं यह भी जानता हूं कि मेरे इस विचार के लिए सपा में कोई जगह नहीं है और ना ही मेरे भाव और विचार से पार्टी चलेगी, ऐसे में मैं इससे अलग हो जाऊं, यही ठीक होगा।
इसपर मुलायम सिंह जी ने मुझे मेरे आगे के जीवन के लिए शुभकामनाएं दीं और मुझसे बोले, आप पार्टी ही छोड़ रहे हैं ना, मुझे तो नहीं। मिलते रहिएगा।
यह बात मुलायम सिंह जी जैसा इंसान ही कह सकता था। आज की राजनीति में तो मुझे कोई ऐसे नहीं दिखता। अब पार्टी तो पार्टी, अगर आप उनके वोटर भी न निकले तो आपसे अदावती रिश्ता बन जाता है। हालांकि मैंने उनको यह न कहा और यहीं अपनी बात खत्म कर दी।
पर वे तो मुझे पूरे का पूरा ही छीलने के फेर में थे सो उन्होंने फिर छेड़ा, आप कहते हैं कि आपकी राजनीति लालू विरोध की है पर आपके पिता तो खुद उनकी ही पार्टी से सांसद थे?
उनकी पार्टी में नहीं थे। वी0पी0 सिंह की पार्टी में थे, मैंने उन्हें सुधारा। मैंने आगे कहा, तब तक राजद तो बना भी न था। जनता दल ही था। हां, लालू जी का कद तब तक बहुत बढ़ गया था। और बिहार उनके पूरे कंट्रोल में था।
1995 में पिता जी के न रहने पर अगले चुनाव के लिए जनता दल से मेरी उम्मीदवारी पर विचार हुआ। वी0पी0 सिंह जी से लेकर अरुण नेहरू जी तक और तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष बोम्मई साहब से लेकर जयपाल रेड्डी जी तक सब ने मेरी उम्मीदवारी का समर्थन किया। लेकिन मेरे और टिकट के बीच लालू जी की लात चली आई।
मैंने बात को सरस बनाने के लिए जानबूझ कर ऐसा कहा और उसकी प्रतिक्रिया उनमें देखने लगा। वह मेरी बात सुनने के लिए कुछ और उत्सुक नजर आए।
मैंने अपना कहना जारी रखा, दरअसल वी0पी0 सिंह जी के कहने पर मैं पटना में लालू जी से मिलने चला गया। वहां मैंने देखा कि सारे टिकटार्थी लाईन लगा कर खड़े हैं। नेताओं से मिलने के लिए लाईन में लगने की मेरी आदत न थी। नवभारत टाईम्स के पत्रकार के तौर पर मैं एक फोन पर किसी से भी मिल सकता था, चाहे वह लालू जी ही क्यों न हों। नहीं तो किसी के बुलाने पर ही उससे मिलने जाता था।
पर यहां पहुंचकर देखा कि लाईन में लगने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है। जैसे-जैसे लोग बढ़ते रहे, मैं भी बढ़ता गया। लालू जी के पास पहुंचा तो देखा वह अपनी टांगे सामने की टेबुल पर पसारे बैठे हुए हैं। टिकटार्थी एक-एक कर के उनके पाँव लग रहे हैं और वे उन्हें आगे बढ़ जाने का इशारा कर रहे हैं। कोई कुछ कहना भी चाहे तो इतना सा समय भी उसके लिए नहीं है। मेरी बारी आई तो मुझसे उनके पैर नहीं छुए गए। उन्होंने भी मुझे बेरुखी से आगे बढ़ जाने का इशारा किया और मैं बढ़ गया।
इसके बाद जब मैं दिल्ली में बोम्मई साहब से मिला तो उन्होंने मुझसे पूछा, मिले आप लालू जी से?
मैंने पूरी कहानी उनको सुना दी। उन्होंने मुझे सलाह दी, इसमें क्या? अरे पैर ही तो छूने थे। इसमें अपमान क्या? मुख्यमंत्री जानकर नहीं तो बड़ा भाई मानकर ही छू देते पाँव। ऐसा कीजिए, एक बार और मिल आईए।
उनकी बात मानकर मैं फिर गया। और इस बार मेरे साथ आलमनगर के वीरेन्द्र कुमार सिंह जी भी गए। आलमनगर चूंकि लालू जी के क्षेत्र मधेपुरा का हिस्सा है और वीरेन्द्र बाबू वहां के खानदानी जमींदार, इसलिए रुकना या लाईन में लगना नहीं पड़ा। पर फिर जब हम दोनों आमने सामने हुए तो लालू जी का वही तेवर दिखाई पड़ा। अपनी टांगे उठाकर उन्होंने सामने की टेबुल पर रख दीं और ताकने लगे मेरी ओर कि मैं कब उनके पैर पड़ूं।
वीरेन्द्र बाबू के सामने भी उनका टांग पसार कर बैठ रहना मुझे नहीं सुहाया और मैं उन्हें गोड़ न लग सका। सो उन्होंने मेरा टिकट काट कर डिहरी के वीरेन्द्र कुमार सिंह को औरंगाबाद से उम्मीदवार बना दिया।
इसमें मैं उन्हें कोई दोष भी नहीं देता। सच तो यह है कि मेरे पिता भले ही उसी दल में रहे हों, पर मैंने हमेशा लालू जी की नीतियों और रीतियों का विरोध ही किया। उन्हें भी यह मलाल था और इसका इजहार उन्होंने पिता जी से किया भी कि आपका बेटा तो हमेशा हमारे खिलाफ ही लिखता है। दरअसल, सत्ता के पाँव सहलाने की आदत कभी रही नहीं। जनता के मुद्दों पर सबसे टकराता रहा। मेरे लिए सत्ता और पद पाना आसान था पर मैंने हर बार जन सरोकारों को ज्यादा महत्व दिया।
बात को पटरी पर लाने के इरादे से उन्होंने पूछा, तो क्या आप चुनाव नहीं लड़े?
लड़ा। जरूर लड़ा। नारायण दत्त तिवारी जी और अर्जुन सिंह जी ने कांग्रेस छोड़ कर नई पार्टी बनाई थी। सो अर्जुन सिंह जी ने मुझे बुलाकर अपनी पार्टी के सिम्बल पर चुनाव लड़ने के लिए कहा और मैं उनकी बात मान गया।
पर आप जीते तो नहीं? उन्होंने यह सवाल मुझे छेड़ने के लिए ही पूछा।
मैंने उन्हें शान्त मन से बताया कि जीतने की कौन कहे, मेरी जमानत तक नहीं बची। कुल पाँच हजार वोट मिले। इसे आप जो समझ लें पर मैं तो यही मानकर चलता हूं कि पाँच हजार लोग ऐसे थे जो मुझे चाहते थे। बाद में सपा से लड़ते हुए मैं अपने इस वोट में कुछ इजाफा कर पाया और आठ हजार वोट मिले। अब इसे भी आप जो समझना हो समझ लें पर सच यह है कि वोट की गिनती से न तो आदमी के शील-स्वभाव का पता चलता है और न उसकी योग्यता का। बहुत से मित्रों ने तो सिर्फ इसलिए मुझे वोट नहीं दिया कि मुझे वोट देने से उनका वोट बर्बाद हो जाएगा।
अब उन्हें कौन समझाए कि वोट इस तरह बर्बाद नहीं होते। तीसरी दफा तो मैं निर्दलीय ही चुनाव में खड़ा हो गया। लोकसभा में नहीं, विधानसभा के चुनाव में। लोगों ने कहा, जितने उम्मीदवार मैदान में हैं, उन सबमें आप सबसे योग्य हैं। पर तब भी उन्होंने मुझे वोट नहीं दिया। जो लोग रामाधार जी के विरोधी थे, उन्होंने कहा आप तो सबसे ठीक हैं पर रामाधार को हरा नहीं सकेंगे और हमारा वोट बर्बाद हो जाएगा। और जो सिंह कोठी के खिलाफ थे, उनका भी कहना था कि आप सबसे बेहतर हैं पर आपको वोट देकर हम अपना वोट बर्बाद क्यों करें। तब भी मुझे लगभग तीन हजार वोट मिले। मेरे अपने गाँव भवानीपुर के अलावा इसरौड़ और कनबेहरी ने मेरा पूरा साथ दिया।
जिन्हे यह लगता था कि मुझे वोट देने से उनका वोट बर्बाद हो जाएगा, उनमें से एक वर्ग का वोट फिर भी बेकार ही हुआ। वे राजद उम्मीदवार सुनील कुमार सिंह को 33 हजार वोट दिलाकर भी रामाधार जी को हरा नहीं पाए। वोट का मकसद अगर रामाधार जी को हराना था, तब उनके कुल 33 हजार वोट बर्बाद हो गए। जबकि दूसरी तरफ रामाधार जी को हराने के इस लक्ष्य में मेरे तो सिर्फ तीन हजार वोट ही बर्बाद हुए। पर इस हार जीत का कोई गणित नहीं होता। मैं अपनी नोकरी तक छोड़ कर जनता के बीच आ पहुंचा और लोग मुझसे कहते रहे, आप अभी आए हैं। लगे रहिए। भविष्य आपका है। पर वही जब निखिल कुमार जी सेवा से निवृत्त होकर चुनाव लड़ने आए तो सबों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। किसी ने उनसे नहीं कहा, अभी तो आप आए हैं। लगे रहिए।
मैं हर बार हारा और बेतरह हारा, फिर भी इस वोट से मेरे संबंधों पर कोई फर्क नहीं पड़। मेरी मित्र मंडली में वह भी रहे जिन्होंने जम कर मेरा साथ दिया, और वह भी जिन्होंने मुझे वोट नहीं डाला। आज भी मेरे मित्रों में राजद के लोग भी हैं और भाजपा के भी। हिन्दू भी हैं, मसलमान भी। राजपूत हैं और यादव भी। सवर्ण जातियों के भी हैं और दलित जातियों के भी। न मैंने किसी से कभी भेद भाव किया और ना ही चुनाव के बाद किसी से अदावत बनाए रखी। मित्रों ने भी चुनाव को चुनाव समझा और संबंध को संबंध। हां, आज एक जमात ऐसी जरूर खड़ी होती दीख रही है जो किसी और के इशारे पर आपको काट खाने को तैयार है। पर मुझे उनसे भी कोई शिकायत नहीं। वह उसी तरह से संबंध निभाते हैं, जैसा कि वह जानते हैं और मैं उस तरह से संबंध निभाता हूं, जैसा मैंने सीखा है।
मेरी इस बात में उनकी उतनी रुचि न थी सो मेरी बात को काटते हुए उन्होंने मुझपर व्यंग्य बाण छोड़ा, आपको खराब नहीं लगा या शर्म महसूस नहीं हुआ कि आपको इतने कम वोट मिले?
क्यों इसमें बुरा मानने या शर्म जैसी बात मेरे लिए कहां थी। मुझे तो योग्य बता कर रिजेक्ट किया गया। शर्म तो उन्हे आ रही होगी जिन्होंने मुझे योग्य जानते हुए भी वोट मुझे नहीं किया या फिर उसे जिसे अयोग्य जानकर भी जिता दिया गया।
मैं कुछ और बोलता कि इससे पहले उन्होने मुझसे फिर पूछा, फिर कभी आपकी लालू से मुलाकात हुई कि नहीं?
मैंने भी बात का रुख मोड़ते हुए उन्हें जवाब दिया, हुई, बिलकुल हुई। और एक बार नहीं, अनेक बार हुई। और इनमें से कुछ तो बड़ी ही रोचक मुलाकातें थीं। एक तरह से मैंने अपने अपमानों का बदला भी ले ही लिया। पर उनके बारे में फिर कभी। अभी मुझे घर लौटना है। पत्नी इंतजार कर रही होगी। और आपको भी तो दूर जाना है।
पर वे मुझे छोड़ने को तैयार न थे। उन्होंने पूछा, अच्छा, यह तो बता दीजिए कि आपने नारायण दत्त तिवारी वाली कांग्रेस को क्यों छोड़ा?
मैंने उठते हुए उन्हें इतना ही कहा, मैंने कहां छोड़ा। मैं तो जिस लीक पर चल रहा था, उसी पर चलता रहा। अंततः उन्होंने ही अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर लिया और चूंकि तब कांग्रेस, राजद के साथ थी, ऐसे में मैं वहीं बना रहा, जहां मैं खड़ा था।

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