साहित्य साधना की तीसरी पीढ़ी

लेखक-पत्रकार-फिल्मकार रंजन कुमार सिंह ने लेखन की पारिवारिक परम्परा को निभाते हुए अब तक हिन्दी तथा अंग्रेजी में एक दर्जन पुस्तकों की रचना की है। इसके अलावा वह टीवी के लिए अनेक फिल्में भी बना चुके हैं। बड़े परदे के लिए बनी फिल्म आमिर से भी वह सलाहकार के तौर पर जुड़े रहे थे। लेखन के साथ-साथ वह संपादन, अनुवाद तथा साहित्यिक आयोजनॆ के माध्यम से भी हिन्दी की सेवा करते रहे हैं।
रंजन ने राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स से कैरियर की शुरुआत कर ऑडियो-वीडियो की दुनिया मे कदम रखा। इससे पहले 1985 में वह अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी समिति, अमेरिका के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे, जहां रहते हुए उन्होंने इस संस्था के विस्तार में तो सहयोग किया ही, अमेरिका और कनाडा में हिन्दी कवि सम्मेलनों की परम्परा की शुरुआत भी की। उनके संयोजकत्व में पहली बार इन देशों के 22 शहरों में वृहद हिन्दी कवि सम्मेलन श्रृंखला का आयोजन किया गया, जिसमें हिन्दी के सुपरिचित कवि डा0 बृजेन्द्र अवस्थी तथा श्री सोम ठाकुर शामिल हुए। कुछ शहरों में रंजन खुद भी कवि के तौर पर शामिल रहे। अमेरिका में हिन्दी छापाखाना के अभाव में उन्होंने अपने हाथ से लिखकर विश्वा नामक हिन्दी पत्रिका की शुरुआत की, जो आज सामान्य रूप में नियमित प्रकाशित हो रही है।
वह न्यू यार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन की मीडिया समिति के सदस्य रहे और इसके सरकारी प्रतिनिधिमंडल में भी शामिल हुए। नवभारत टाइम्स से लेकर साहित्य अमृत तक में उनके यात्रा संस्मरण छपते रहे हैं और पाठकों द्वारा सराहे भी जाते रहे हैं। वह दिल्ली सरकार की भोजपुरी-मैथिली अकादमी के संचालन मंडल के सदस्य भी रह चुके हैं। वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की पटना इकाई की क्षेत्रीय सलाहकार समिति के सदस्य भी रह चुके हैं।
उनकी पुस्तक सरहद जीरो मील पाठकों को न सिर्फ करगिल युद्ध के दौरान का आंखों देखा हाल बताती है, बल्कि सरहद की उस जिन्दगी से भी उन्हें रू-ब-रू कराती है, जिसके बारे में वह सिर्फ अखबारों में ही पढ़ता रहा था। साहित्य और घुमक्कड़ी, दोनों ही उन्हें विरासत में मिले। निरंतर 18 वर्षों तक नवभारत टाइम्स को अपनी सेवाएं देने के बाद उन्होंने समाचार-पत्र कोअलविदा कहा और टी0वी0-पत्रकारिता से जुड़ गए। अपने पहले ही वृत चित्र के लिए वह अपने साथियों के साथ भारत-पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा के दौरे पर निकल पड़े। यह सीमा रेखा जम्मू क्षेत्र के संगम से लेकर लद्दाख क्षेत्र के परतापुर तक 840 किल¨मीटर लंबी है। परतापुर सियाचिन का बेस कैम्प है। फिर यह लद्दाख में ही चीन की सीमा से भी मिलती है। वहां इसे नियंत्रण रेखा की बजाय वास्तविक नियंत्रण रेखा कहा जाता है। रंजन और उनके दल ने इस पूरे क्षेत्र का भ्रमण किया। किसी भी लेखक या पत्रकार के लिए यह एक बेमिसाल मौका था क्योंकि इन इलाकों में सेना और स्थानीय लोगों के अलावा शायद ही कोई जा पाता है।
रंजन कुमार सिंह 1999 में गए तो थे वहां नियंत्रण रेखा के आसपास की जिन्दगी को निरखकर उसपर वृत चित्र बनाने, पर उसी दरम्यान वहां करगिल युद्ध छिड़ गया और रोज-ब-रोज की छिटपुट गोलाबारी, भारी बमबारी में बदल गई। रंजन ने इन सब को न सिर्फ अपनी खुली आंखों से देखा, बल्कि उसे फिल्माते भी रहे। वहां से लौटकर उन्होने जो पुस्तक तैयार की, वह हिन्दी साहित्य ही नहीं, वरन किसी भी भारतीय भाषा साहित्य के लिए बेमिसाल है। भारत तथा पाकिस्तान के बीच वर्षों से विवादास्पद बनी इस नियंत्रण रेखा के बारे में यह मूल हिन्दी का एकमात्र प्रथमद्रष्ट्या एवं प्रामाणिक दस्तावेज है। सरहद जीरो मील नामक इस पुस्तक को रक्षा मंत्रालय द्वारा पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है।
इससे भी पहले अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने अजनबी शहर, अजनबी रास्ते शीर्षक से जो यात्रा-संस्मरण हिन्दी साहित्य को दिया, वह अपनी सादगी और कथा-वाचन शैली के लिए विशेष सराहा गया। प्रतिष्ठित कवि श्री अजित कुमार ने उसकी भूमिका में लिखा है, रंजन की निगाह व्यक्तियों, स्थानों, संस्थानों और स्थितियों पर टिकी और वे इनमें शामिल हुए, इनको जानने में लगे। इस क्रम में जो यात्रा-वृत बना, वह रंजन के अनुभवों के बारे में तो बताता है ही, हमारी जानकारी भी बढ़ाता है। इनके अलावा बंद खिड़की से टकराती चीख नाम से उनका एक हिन्दी कहानी संग्रह भी आ चुका है, जिसमें हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा युवा कथाकार पुरस्कार से सम्मानित कहानी छठी मइया शामिल है। यह कहानी उन्होंने अपने कालेज के दिनों में लिखी थी।
लेखन के साथ-साथ आयोजन का महत्वपूर्ण दायित्व भी वह संभालते रहे हैं। अन्तराष्ट्रीय हिन्दी समिति, अमेरिका तथा अमेरिका में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की मीडिया समिति में शामिल रहकर वह वैश्विक हिन्दी के प्रचार-प्रसार का काम तो कर ही चुके हैं, देश में रहते हुए भी उन्होंने हिन्दी भाषा एवं साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना भरपूर योगदान किया है। बिहार के ग्रामीण अंचल में अपने पिता स्व0 शंकर दयाल सिंह द्वारा शुरु की गई हिन्दी कवि सम्मेलन की परम्परा को आगे बढ़ाने के साथ ही ग्रामीण अंचल में ही उन्होंने हिन्दी कथा शिविर की नींव रखी, जिसकी अब तक चार कड़ियां सफलतापूर्वक आयोजित की जा चुकी हैं और जिसमें पद्मश्री डा0 उषा किरण खान, पद्मश्री मंजूर एहतेशाम, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, प्रियम्वद, सुधा अरोड़ा, डा0 विद्याबिन्दु सिंह, वंदना राग, गीताश्री, गीतांजलिश्री, ज्योति चावला, प्रज्ञा रोहिणी, अवधेश प्रीत, श्रद्धा थवाईत जैसे प्रतिष्ठित तथा नवोदित कथाकार शामिल रहे हैं। इससे उपजी कहानियो के चार संग्रह नरेन्द्रपुर – भारत की गवंई गंध नाम से प्रकाशित किए जा चुके हैं, जिनका संपादन रंजन कुमार सिंह ने ही किया है।
लेखन तथा संपादन के अलावा रंजन अनुवाद के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं। ऑल बट फिक्शन के नाम से उन्होंने राजनीतिक-साहित्यकार डा0 रमेश पोखरियाल निशंक की पुस्तक का अनुवाद हिन्दी से अंग्रेजी में किया तो वहीं शरत चन्द्र बोस की पुत्री माधुरी बोस की चर्चित पुस्तक दि बोस ब्रदर्स एंड इंडियन इंडिपेंडेंस का अनुवाद अंग्रेजी से हिन्दी में किया है। एमटीवी जैसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनल के लिए भी उन्होंने अनुवाद का काम किया है। इनके अलावा उन्होंने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की पाठ्य पुस्तको का भी अनुवाद किया है। उन्होंने इसी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के लिए मूल पाठ्य सामग्री भी तैयार की है, जो एम0ए0 स्तर पर पढ़ाई जा रही है। उनके द्वारा तैयार एक अन्य पाठ्य सामग्री इसी विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पढ़ाई जा रही है।

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