बुद्ध पूर्णिमा की मंगलकामनाएं।

बुद्ध पूर्णिमा यानी वैशाख माह की शुक्ल पक्ष का पंद्रहवां दिन। आज का चन्द्रमा अपनी पूरी गोलाई में होगा और फिर कल से यह घटने लगेगा। देखा जाए तो हमारा पंचांग या कैलेंडर सूर्य की बजाय चन्द्रमा की गति से ही परिचालित है। पूर्ण चन्द्र से विलुप्त चन्द्र तक पहुंचने में उसे पंद्रह दिन लगते हैं और फिर विलुप्त चन्द्र से पूर्ण चन्द्र में बदलने में पंद्रह दिन। पंद्रह दिनों का यह काल पक्ष कहलाता है। अंग्रेजी के कैलेंडर में पक्ष का प्रावधान नहीं है। वहाँ माह को विभक्त कर के नहीं देखा जाता। हमारे यहाँ माह दो पक्षों में बांटा गया है। विलुप्त चन्द्र से पूर्ण चन्द्र तक के काल को शुक्ल पक्ष कहते हैं और पूर्ण चन्द्र से विलुप्त चन्द्र के काल को कृष्ण पक्ष। पूर्ण चन्द्र के साथ पूर्णिमा होती है और विलुप्त चन्द्र के साथ अमावस्या।

तो आज पूर्णिमा है और वह भी बुद्ध पूर्णिमा। बुद्ध पूर्णिमा यानी आज के दिन ही बुद्ध का अवतरण हुआ। वैशाख माह की पूर्णिमा को ही उन्हें ज्ञान की प्राप्ति भी हुई थी। और तो और वैशाख माह की पूर्णिमा को ही उनका महानिर्वाण भी हुआ था। जाहिर है कि बौद्धों के लिए इस दिन का विशेष महत्व है। लुम्बिनी में जन्म हुआ और कुशीनगर में निधन। लुम्बिनी आज नेपाल में है और कुशीनगर भारत में। जन्म उनका हिन्दू परिवार में ही हुआ और उनके महाप्रयाण तक बौद्ध धर्म नहीं था, बल्कि हिन्दू धर्म का श्रमण पंथ था। श्रमण परम्परा में जैन और चार्वाक भी शामिल हैं। आज बौद्ध धर्म भी है और जैन धर्म भी।

काश, दोनों अलग-अलग धर्म न होकर हिन्दू धर्म के ही अंग होते तो सोचिए आज दुनिया को कितने बड़े हिस्से में हिन्दू धर्म का चलन होता! चीन से लेकर जापान तक और भूटान से लेकर उत्तरी कोरिया तक में। म्यामार, थाईलैंड, कम्पूचिया, श्रीलंका, तिब्बत, लाओस, मंगोलिया, मकाउ, हांगकांग, सिंगापुर तथा वियतनाम में हिन्दू धर्म का ध्वज फहरा रहा होता। पर आज का सच यही है कि ये सभी राष्ट्र बौद्ध हैं और केवल भारत एवं नेपाल ही हिन्दू।

मानिए या न मानिए, बौद्धों ने स्वयं को हिन्दुओं से अलग नहीं किया। इस्लाम या क्रिस्चियान ने भी हिन्दू-बौद्धों को अलग-अलग करने का काम न किया। हिन्दुओं ने ही स्वयं बौद्धों और जैनियों को हिन्दू धर्म से अलग कर दिया। और हिन्दुओं में भी सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों ने। ये दोनों धर्म हिन्दू धर्म को कहां चुनौती दे रहे थे? वे तो चुनौती दे रहे थे ब्राह्मणवाद को। शायद यह महज संयोग हो कि दोनों का ही संबंध ब्राह्मण कुल से न होकर क्षत्रीय कुल से था। दोनों राजकुमार थे। वे तो चुनौती दे रहे थे हिन्दू धर्म की उन गली-सड़ी रीतियों को जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने हितों के लिए बना रखा था। फिर ब्राह्मणों को यह भला क्यों सुहाता?

हां, बौद्धों का संघर्ष वैष्णवों से उतना नहीं रहा, जितना कि शैवों से। जगत्गुरु आदि शंकाराचार्य शैव ही तो थे। वैष्णवों से तो एक हद तक स्थिति संभालने की कोशिश की और बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार बताया पर शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बोद्धों ने तो इस मान्यता को स्वीकृति नहीं ही दी, यहां तक कि हिन्दुओं में भी बहुतों से बुद्ध को दशावतार में मानने की बजाय बलराम को उसमें स्थान देना उपयुक्त समझा।

आज के इस बुद्ध पूर्णिमा पर मेरा मन उद्विग्न है। काश! काश!! और काश!!! बौद्ध एवं जैन हिन्दू धर्म की परम्पराओं के तौर पर बने रहने दिए गए होते तो हम सब भी बुद्ध पूर्णिमा को उसी उत्साह से मना रहे होते जैसे कि आज चीन से लेकर जापान में मनाया जा रहै है।

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2 Comments

  1. अच्छी तरह से सोचा और अच्छी तरह से व्यक्त लेख। आपसे और भी कई लेखों की प्रतीक्षा है सर।

  2. सदैव की भांति अवगत और चिंतन के समावेश वाली पोस्ट। प्रसंगवश इस उद्धरण को साझा कर रहा हूं-

    ” हिन्दुत्व का स्वभाव है कि वह जितना ही परिवर्तित होता है, उतना ही अपने मूल स्वभाव के समीप पहुंच जाता है। पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर ने हिन्दुत्व में जो सुधार किए, वे प्रायः धीरे-धीरे और एक प्रकार से नि:शब्दता के साथ आए। किंतु बहुत कुछ वैसा ही सुधार महात्मा बुद्ध और उनके शिष्यों ने यथेष्ठ कोलाहल के साथ किया। सुधारों के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म का रूप परिवर्तित भी हुआ। किन्तु वह इतना भी परिवर्तित नहीं हुआ कि उसका आज का रूप बुद्ध से पहले वाले रूप से बिल्कुल भिन्न हो जाए। वैदिक आर्य यज्ञ प्रेमी थे। आज भी यज्ञ जहां-तहां होते रहते हैं। वैदिक आर्य ऊषा, इंद्र, सूर्य, अग्नि आदि को देवता मानते थे। आज भी हिंदुओं के हृदय में इन देवताओं के लिए श्रद्धा और भक्ति है। वैदिक आर्यों के विश्वास के अनुसार ही आज भी ऐसे हिन्दुओं की कमी नहीं जो स्वर्ग में सुख पाने को धरती पर दान देते हैं…
    (रामधारी सिंह दिनकर लिखित “संस्कृति के चार अध्याय” से )

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