बिहार चुनाव में NDA का पलड़ा धीरे-धीरे भारी होता दीख पड़ रहा है. C-Voter ने सितम्बर के दूसरे सप्ताह में जो सर्वेक्षण कराया था, उसमे NDA को मात्र 104 सीटें दीखाई गई थीं. ताज़ा सर्वेक्षण में यह संख्या बढ़ कर 117 पहुँच गई है. इससे पहले जहाँ UPA को 124 सीटें मिलती दिखाई गई थी, वहां यह संख्या अब घटकर 112 रह गई है. 14 सीटें अन्य के खाते में दिखाई गई है. अगर ऐसा होता है तो इसका मतलब यही होगा कि नयी बिहार विधानसभा में किसी भी दल या गठबंधन के साथ स्पष्ट बहुमत नहीं रहेगा.

अगली विधानसभा लटकी हुई रहेगी, ऐसा संकेत एक और बात से भी मिलता है. राज्य की सत्ता NDA को सौपना चाहने के बावजूद 46.8 फीसदी लोग नितीश कुमार को ही मुख्यमंत्री देखना चाहते है, जबकि भाजपा नेता सुशील मोदी के समर्थन में मात्र 16 फीसदी लोग ही खड़े नज़र आ रहे है. अब सरकार NDA की बने और नितीश उसके अगुआ हों, ऐसा तो हो नहीं सकता. ऐसे में यह दोहरी निष्ठां राज्य को त्रिशंकु विधान सभा की तरफ ले जाती हुई ही दिखाई पड़ती है.

वैसे बिहार में UPA की स्थिति बड़ी ही विचित्र कही जा सकती है. ऐसे तो देश में इसकी अगुआई कोंग्रेस करती है, पर बिहार में वह लालू-नितीश का हाथ पकड़कर ही चलने को बाध्य है. अब बिहार में UPA का नेतृत्व किसके हाथ में है, इसका पता लगाना उतना ही मुश्किल है जितना कि यह जान पाना कि यदि यहाँ NDA सत्ता में आती है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा! वैसे बिहार के इस चुनाव के लिए इस गठबंधन को एक नया नाम दिया गया है – महागठबंधन.

बिहार के लोग यदि भाजपा के सुशील मोदी को मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं देखना चाहते तो इसका कारण भी वह  खुद ही हैं. बिहार के लोग यह नहीं भूल पा रहे हैं कि यही सुशील मोदी कुछ समय पहले तक नितीश कुमार को पीएम् मेटेरिअल कहते नहीं अघाते थे. अब वह यदि उनका विरोध कर रहे हैं तो अपनी विश्वनीयता की कीमत पर. वैसे भी सुशील मोदी की साख एक ऐसे नेता के तौर पर है जो किसी न किसी के पीछे चलने का आदि रहा है. उनकी अपनी नेतृत्व क्षमता पार्टी के अलावा कहीं और निखर कर आई ही नहीं, जबकि सत्ता के गलियारे में वह सबसे अधिक समय तक रहे हैं.

NDA के पास वैसे तो कुछ और भी नेता हैं, जिनके नाम पर वह विचार कर सकती है, पर उनमे भी पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को केवल 6.7 फीसदी लोग ही फिरसे मुख्यमंत्री देखना चाहते है और शाहनवाज़ हुसैन को सिर्फ 5.4 फीसदी लोग मुख्यमंत्री के तौर पर चाहते हैं. मांझी को लोग पीठ में छुरा घोपने वाले नेता के तौर पर देखते हैं, जबकि शाहनवाज़ अभी प्रदेश में अपनी सक्रियता नहीं दिखा पाए हैं कि लोग उन्हें अगला मुख्यमंत्री मानने लगें.

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