रंजन कुमार सिंह
बचपन में जब कभी काबुलीबाला आता था हमारी गली में तो मैं डर कर छिप रहता था घर के भीतर। किसी ने हमें बता दिया था कि ये जो पोटली लेकर घूमते हैं अपनी लंबी बाहों के बीच उसी में बाँध कर ले जाते हैं छोटे बच्चों को। दूर से ही हमें उसकी आवाज सुनाई दे जाती थी, काबुल-कंधार से आया हूं मैं, लेकर पिस्ता-बादाम। तब हमें न तो काबुल की समझ थी और न कंधार की। पहली बार बूढ़ी दादी ने हमें महाभारत की कथा सुनाते हुए गांधारी के बारे में बताया था और कहा था कि गंधार की राजकुमारी थी वह जिसे भीष्म जीतकर लेते चले आए थे और ब्याह दिया था अंधे धृतराष्ट्र से। राजकुमारी गांधारी के साथ उसका भाई शकुनी भी चला आया था और उसने देखा था कि किस तरह उसकी बहन के साथ ज्यादती हुई। अपनी बहन के साथ हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए ही उसने हस्तिनापुर को नेस्तनाबूद करने की कसम खाई थी। महाभारत का युद्ध उसकी इसी कसम का परिणाम था।
यह जान लेने के बाद काबुलीवाले को लेकर मेरा डर जाता रहा। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, काबुलीवाले के प्रति मेरा आकर्षण भी बढ़ता गया। फिर मैंने उसकी नेकदिली के किस्से भी सुने और उसकी दोस्तपरस्ती के भी। फिल्म काबुलीवाला ने मेरे बाल मन पर गहरा प्रभाव जमाया, पर फिल्म जंजीर ने तो पठान को हमारे जेहन में गहरे तक उतार ही दिया। आज जब दुनिया भर में काबुल-कांधार की चर्चा चल रही है और वहां के तालिबानी आतंक का साम्राज्य कायम करने में लगे हैं, तब मुझे बचपन के काबुल-कंधार भी याद आ रहे हैं और पठान का बच्चा काबुलीवाला भी।
तालिबान का मतलब होता है तालीम लेनेवाले यानी विद्यार्थी। ये बिगड़ैल आतंकवादी दरअसल विद्यार्थी ही हैं, जिन्होंने कट्टरपंथी इस्लामी मदरसों में तालीम पाई है और फिर इस्लाम के नाम पर हुकूमत जमाने की कोशिशें करते रहे हैं। पहली बार तालिबानियों ने 1996 में अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया था, पर 2001 में न्यू यार्क के ट्विन टावर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने उन्हें खदेड़ बाहर किया था। इस बीच वे अपनी ताकत बढ़ाते रहे और फिर जब 2021 में अमेरिकी फौजों को अफदानिसातान से वापस बुलाने का फैसला हुआ तो मौके का फायादा उठाते हुए वे अफगानिस्तान पर फिर से काबिज हो गए हैं।
सोचकर अफसोस होता है कि एक समय जहां तक्षशिला में दूर-दूर से विद्यार्थी उच्चस्तरीय शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे, आज उसी तक्षशिला में शिक्षा इतनी संकीर्ण हो चुकी है कि महिलाओं को इससे महरूम किया जा रहा है। जी हां, आपने सही फरमाया तक्षशिला अब के पाकिस्तान में ही है, अफगानिस्तान में नहीं। पर शायद तब आपको यह नहीं पता कि तक्षशिला कभी कंधार की राजधानी थी! अब तो तक्षशिला भी पाकिस्तान वाले पंजाब प्रांत के रावलपिंडी शहर में सिमट कर रह गई है। वह भी खंडहरों के तौर पर।
ईसा से 305 वर्ष पहले का भारत अब के अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। भारतीय उपमहाद्वीप के इस भूभाग पर मौर्यों का ही नहीं, बल्कि कुषाणों का भी शासन रहा था। हां, चन्द्रगुप्त मौर्य ने जहां गंगा किनारे से चलकर काबुल नदी तक का रास्ता तय किया था, वहीं कनिष्क काबुल नदी से चलकर गंगा तट तक पहुंचा था। चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का विस्तार जहां पाटलीपुत्र से लेकर कंधार तक था, वहीं कनिष्क के साम्राज्य का विस्तार सिंधु नदी से लेकर गंगा नदी तक था और उसमें कश्मीर से लेकर तिब्बत तक शामिल थे। यह वही कनिष्क थे, जिनके समय इस कंधार क्षेत्र में बोद्ध धर्म खूब फला-फूला था और जिसके संरक्षण में कला ने अपना स्वर्णिम काल देखा था।
यह यादकर हम अफसोस ही तो कर सकते हैं कि गांधार कला के उत्कृष्ट नमूनों में एक बामयान बुद्ध को इन्हीं तालिबानियों ने 2001 में बमों से उड़ा दिया था, जो आज फिर से अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। तालिबानी बेशक आज मक्का में कुरआन शरीफ पर हाथ रखकर कसमें खा लें कि वे अब बगल चुके हैं और अब अपनी वह क्रूरता नहीं दोहराएंगे जो उन्होंने आज से बीस साल पहले बरपाई थी, तो भी किसी को यह क्यों यकीन होगा? तालिबानियों को लेकर दहशत का जो आलम है, उसकी तस्वीर उड़ते विमान पर लटके लोगों के तौर पर दुनिया के सामने आ चुकी है। जाने कैसा वह मंजर रहा होगा कि डरे-सहमे लोगों ने विमान से गिरकर मर जाना कबूल किया पर तालिबानियों के हाथों पकड़े जाना उन्हें मंजूर न हुआ। जाहिर है कि वे मौत से बचने के लिए नहीं, बल्कि अपनी मौत को बेहतर बनाने के लिए विमान से लटके होंगे। जानें कैसे हैं ये दहशतगर्ज कि दहशत भी उनसे रहम की भीख मांगती है।
कहने को तो तालिबानियों ने बिना किसी हिंसा के पूरे अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा लिया, पर हम सबने खबरों में देखा कि किस तरह वे खुलेआम हाथों में हथियार लिए हेरात से लेकर काबुल तक की सड़कों पर घूमते रहे और किस तरह उन्होंने एक-एक कर के सभी प्रांतों पर अपना कब्जा जमा लिया। दरअसल, अफगानिस्तान चौंतीस प्रांतों का देश है, जिसमें गौर और गजनी भी शामिल हैं। महमूद गजनबी तथा मोहम्मद गौरी को आप भूले नहीं होंगे, जिन्होंने भारत को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इन दोनों के नामों में ही उनके प्रांतों का नाम देखा जा सकता है, जो वास्तव में उनके कबीले की ओर भी इशारा करता है। महमूद गजनबी ने तो एक बार नहीं, सत्रह बार भारत पर धावा बोला था और सोमनाथ से लेकर मथुरा तक के मंदिरों को लूटकर हरेक बार भारी खजाने के साथ गजनी लौट गया था। इसी तरह मोहम्मद गौरी को भला तौन भूल सकता है, जिसने पृथ्वीराज के जमाने में भारत पर आक्रमण किया था और शुरु में मुंह की खाने के बावजूद उसने हार नहीं मानी थी और तराईन के दूसरे युद्ध में जीत हासिल कर दिल्ली तक पर अपना कब्जा जमा लिया था। कुतूबुद्दीन ऐबक उसी का गुलाम था, जिसने दिल्ली में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए कुव्वत-उल-इस्लाम नाम मस्जिद बनवाई और उसके साथ ही कुतुब मीनार को खड़ा कर दिया।
महमूद गजनबी या मोहम्मद गौरी से पहले, बहुत पहले, यूनानी शासक एलेक्ज़ैण्डर या सिकन्दर ने भारत की तरफ कूच किया था, पर भारत विजय का उसका सपना, सपना ही बना रह गया। उसके बाद उसके कुशल सेनापति सेल्युकस ने भारत पर चढ़ाई करने की जरूर ठानी, पर तब चन्द्रगुप्त मौर्य ने आगे बढ़कर उसका मुकाबला किया और गांधार में ही उसके अभियान को रोक दिया। बताते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सेल्युकस के बीच हुई संधि में चन्द्रगुप्त को गांधार मिला, जबकि सेल्युकस उससे अपनी बेटी हेलन की शादी कराकर यूनान लौट गया। तब विदाई में उसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाँच सौ हाथी दिए और साथ में भारी मात्रा में अनाज तथा अनेक सेवक भी।