विष्णु शर्मा याद हैं? हां, वही पंचतंत्र की कहानियों वाले। हम सभी अपनी दादी-नानी से पंचतंत्र की कहानियां सुनकर ही बड़े हुए हैं। हो सकता है आपने रूमी का नाम भी सुन रखा हो। रूमी का जन्म अफगानिस्तान में हुआ, जबकि बड़े होकर वह तुर्की में रहने चले गए। दोनों की चर्चा मैं एक साथ क्यों कर रहा हूं भला?
पंचतंत्र की कहानियों के लेखक के बारे में हम सभी जानते हैं कि किसी राजा ने उन्हें अपने मूर्ख बेटों को पढ़ाने का दायित्व दिया था। इससे पहले अच्छे-भले विद्वान उन्हें पढ़ाने-सिखाने में असफल रहे थे। और तब पंडित जी उन्हें कहानियों के जरिये सुशिक्षित करने का काम सफलतापूर्वक किया। दरअसल ये सामान्य कहानियां नहीं थीं, नीतिकथाएं थीं जो मानव स्वभाव या मनोभाव, व्यावहारिकता तथा राजकाज का ज्ञान बड़े ही रोचक तरीके से देती थीं। पांच तंत्रों या भागों में बंटी होने की वजह से ये कहानियां पंचतंत्र कहलाईं। इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्व की लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद किया जा चुका है।
रूमी या जलालुद्दीन रूमी भी शिक्षक ही थे। बेहतरीन शिक्षक। उन्होंने अनेक किताबें लिखीं। बताते हैं कि एक बार जब वे अपनी इन किताबों के बीच बैठे पढ़ रहे थे, तभी उनके सामने कोई पागल सा दिखनेवाला शख्स आ खड़ा हुआ। उसने रूमी से पूछा, क्या कर रहे हो? रूमी ने बेरुखी से जवाब दिया, यह तुम नहीं समझोगे। इतना सुनना था कि कि उस शख्स ने रूमी की किताबों को उठाकर पास के तालाब में फेंक दिया। रूमी दौड़े हुए तालाब तक गए और उन किताबों को निकाल लाए। हालांकि यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि किताबें पानी में डूब कर भी गिली नहीं हुई हैं। अब उन्होंने उस शख्स से पूछा, किया क्या तुमने? शम्स नामक उस शख्स ने जवाब दिया, यह तुम नहीं समझोगे। इसके बाद दोनों एक-दूसरे के होकर रह गए।
कहते हैं कि दोनों की दांतकाटी दोस्ती से परेशान होकर कुछ लोगों ने शम्स की हत्या करा दी। शमस से बिछुड़कर रूमी लगभग पागल हो गए। शम्स की खोज में वह गलियों में घूम-घूम नाचने और गाने लगे। उनके ये गाने किसी इबादत या प्रार्थना से कम न थे। अपने साथी को खोजते-खोजते वह दमिश्क जा पहुंचे और तब उन्हें अहसास हुआ कि जिसे वह खोज रहे हैं, वह तो वे खुद हैं। शम्स की एक-एक बात को इस कदर उन्होंने पचा लिया है अपने भीतर कि अब वह उसी की भाषा बोल रहे हैं, उसी का कहा दुहरा रहे हैं। वह और शम्स एक हो चले हैं। और इस तरह वे एक बड़े लेखक से बहुत बड़े सूफी संत बन गए। अपनी किताबों को छोड़कर वह गीत गाने लग पड़े। ऐसे गीत जो इंसान को इंसान से परिचित कराता था, या यूं कहें कि किसी इंसान को उसके आप से ही मिलवाने वाला था।
अब आप समझ चुके होंगे कि मैं यहां एक साथ पंडित विष्णु शर्मा और मौलवी जलालुद्दीन रूमी का जिक्र क्यों कर रहा हूं। दरअसल दोनों ने जो प्रयोग किए उससे साबित हो गया कि ज्ञान की दुनिया सिर्फ किताबों में कैद नहीं है। कहानियों से भी हम सबक ले सकते हैं और गीतों से भी हम सीख सकते हैं। शायद उससे भी कहीं ज्यादा जो हम कक्षा में मन मारे बैठकर जान-समझ पाते हैं। विष्णु शर्मा और रूमी दोनों ही ऐसे बेहतरीन शिक्षक हैं, जो बातों ही बातों में हमें बहुत कुछ सिखा जाते हैं।
फिर भी शायद दोनों की चर्चा मैं एक साथ नहीं करता, यदि मैंने इधर रूमी की कहानी जीजस एंड दि स्केल्टन न पढ़ी होती तो। रूमी फारसी में लिखते थे और उनकी यह कहानी अंग्रेजी में अनुदित होकर मुझ तक पहुंची। यह कहानी ईसा मसीह और अस्थि पंजर की है। ईसा मसीह धुमक्कड़ थे और अक्सर कोई न कोई उनके साथ हो चलता था। ऐ, ही कभी कोई व्यक्ति उनके पीछे लग गया। वे कुछ दूर साथ चले होंगे कि उन्हें रास्ते में किसी पशु के अस्थि पंजर दीख पड़े। उस व्यक्ति ने ईसा मसीह की ओर मुखातिब होकर कहा, आप तो ईश्वर की संतान हैं। आपके लिए क्या मुश्किल है। यह किसी आदमी की अस्थियां लगती हैं। क्यों नहीं आप इसे फिर से जिला देते? आप मुझे भी मरे हुए आदमी में फिर से प्राण फूंकना सिखा दें तो यह मेरा सौभाग्य होगा।
ईसा मसीह उसकी इस बात को नजर अंदाज करते रहे पर वह बार-बार उन्हें परेशान करता रहा। जब उसे समझाने की तमाम कोशिशें असफल रहीं तो ईसा मसीह ने अपने पुण्य प्रताप से उन अस्थियों को फिर से खड़ा कर दिया। हालांकि वे अस्थियां किसी आदमी की न होकर शेर की निकलीं। इससे पहले कि वह व्यक्ति कुछ कहता-समझता, शेर जिन्दा होकर उसपर झपट पड़ा। और इस तरह वह मूर्ख व्यक्ति भूखे शेर का ग्रास बन गया।
क्या ऐसी ही कहानी हम सबने पंचतंत्र में नहीं पढ़ी थीं? याद कीजिए, चार शिष्यों की कहानी जिन्हें उनके गुरु ने अस्थि पंजर को जोड़कर उनमें प्राण फूकने की कला सिखाई थी। साथ ही उन्हें यह भी चेताया था कि बहुत सोच-समझकर ही इस विद्या का उपयोग किया जाना चाहिए। इनमें से तीन शिष्य विद्या में तो निपुण हो गए, पर व्यावहारिक ज्ञान की उनमें कमी रही। गुरु से शिक्षा प्राप्त कर जब वे चले तो रास्ते में उन्हें अस्थि पंजर बिखरे नजर आए।
तीन शिष्यों ने उसी समय अपनी विद्या का परीक्षण करने का निश्चय किया। चौथे शिष्य ने उन्हें लाख समझाना चाहा, पर मूर्ख भला किसकी बात सुनते हैं। पहले शिष्य ने विद्या का उपयोग कर अस्थियों को जोड़ दिया। पता चला वह किसी बड़े पशु की काया थी। चौथे ने फिर चेताया, पर दूसरे शिष्य ने अपनी विद्या के बल से उसपर मांस-पेशियां और रक्त चढ़ा दीं। इसके साथ ही चारों ने अपने सामने बड़े से शेर को खड़ा पाया। हालांकि अभी वह निष्प्राण था। चौथे शिष्य ने फिर रोका, पर मूर्ख उसकी बात क्योंकर सुनते! तब वह चौथा शिष्य उन्हें छोड़कर दूर चला गया। उसे डरपोक कहकर उसका मजाक उड़ाते हुए तीसरे शिष्य ने अपनी विद्या से शेर को जीवित कर दिया। बस क्या था, शेर अपने सामने शिकार पाकर उनपर टूट पड़ा और उन सबको मार कर खा गया।
यह कहानी पंचतंत्र के पाँचवे तंत्र में संकलित है, जो अपरीक्षित कारक से संबंध रखता है। अपरीक्षित कारक का मतलब इस बात से है कि जिसे परखा न गया हो, उससे सावधान रहना चाहिए। बड़े ही सोच-समझकर कोई काम करना चाहिए, न कि हड़बड़ी में। सफल जीवन के लिए सिर्फ विद्या ही जरूरी नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मूर्ख और हठी, न केवल अपनी जान, बल्कि औरों की जान भी जोखिम में डाल देता है।
इस तौर पर भी मुझे विष्णु शर्मा का पंचतंत्र और रूमी की मसनवियां बेजोड़ लगती हैं। वे दोनों ही हमें बताती हैं कि विद्या या ज्ञान सिर्फ पोथों में नहीं है, जिसे स्कूल-कालेजों की कक्षाओं में बैठकर पाया जा सके। वे तो कहानियों और गीतों के तौर पर हमारे इर्द-गिर्द रची-बसी हैं, जिन्हें जानने-समझने के लिए हमें अपना हृदय और मस्तिष्क दोनों लगाने होंगे। कबीर के शब्दों में कहें तो पोथी पढ़ि-पढि जग मुआ, भया न पंडित कोय, ढाई आखर प्रेम का जो पढ़े सो पंडित होय।
रूमी हमें प्रेम यही ढाई आखर पढ़ाते हैं और विष्णु शर्मा हमें व्यावहारिक ज्ञान का उपयोग करना सिखाते हैं। लेकिन मेरे लिए तो यह भी आश्चर्य का विषय है उस जमाने में जब इंटरनेट का जाल न बिछा था या फिर मानव के पास वाट्सऐप या ट्विटर की शक्ति न थी, तब पंचतंत्र का शेर रूमी की कहानी मे कैसे स्थान बना ले जाता था। कौन सा वह जाल है जो दुनिया की सभी सभ्यता और समाज को एक ही ज्ञानकोष से जोड़ता है? स्वामी विवेकानन्द ने सही ही तो कहा है, दुनियां में कहने के लिए कोई नई बात नहीं है। हां, एक ही बात को कहने के अनेक तरीके जरूर हैं। और इसीलिए तो विष्णु शर्मा और जलालुद्दीन रूमी अपने-अपने तरीके से एक ही बात कह जाते हैं।