गुजरात के मोरबी जिले में मच्छू नदी पर बना झूलतो पुल अपनी अद्भुत कारीगरी के लिए विख्यात था। तारों के सहारे झुलते रहने की वजह से उसे झूलतो पुल कहा जाता था। गुजराती में इसका मतलब है झूलनेवाला पुल। बना तो था वह अंग्रेजों के समय में, पर उसे बनवाने वाले थे मोरबी के राजा प्रजावत्सल्य वाघजी ठाकोर जिन्हें वाघजी राव के नाम से भी जाना जाता है। इसे बनाने के लिए उन्होंने इंग्लैंड से दक्ष इंजीनियर बुलवाए थे और इसका सामान भी वहीं से आया था। कहने की जरूरत नहीं कि इसके निर्माण में आधुकतम तकनीक लगाई गई थी। तब उसके निर्माण में लगभग साढ़े तीन लाख रुपये खर्च हुए थे।
जब यह पुल बन कर तैयार हो गया तो इसके उद्घाटन के लिए राजा साहब ने बंबई के गवर्नर रिचर्ड टेंपल को निमंत्रित किया था और उन्होंने भी इसका उद्घाटन करना अपना सौभाग्य माना। 20 फरवरी 1879 को इसे उपयोग के लिए खोल दिया गया। हालांकि तब इसका उपयोग राजा या उनके दरबारी-कर्मचारी ही करते थे और इसपर एक साथ 15 से अधिक लोगों के चढ़ने की मनाही थी। दरअसल, राजा इसका उपयोग अपने महल से दरबार तक आने-जाने के लिए करते थे और वह भी पालकी में बैठकर, ऊंट, हाथी, घोड़े आदि पर सवार होकर नहीं।
मच्छु नदी के पश्चिमी तट पर दरबारगढ़ महल था तो इसके पूर्वी तट पर नज़रबाग महल। नज़रबाग में राजा का निवास था और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है दरबारगढ़ में उनका दरबार सजता था। 1931 में नज़रबाग महल को इंजीयरिंग कॉलेज में बदल दिया गया और इसका नाम मोरबी टेक्निकल इंस्टीच्यूट रखा गया। कालांतर में इसका नाम लखधीरजी इंजीयरिंग कॉलेज हो गया, जो कि इसके दाता लखधीर जी के नाम पर है। लखधीर जी ठाकोर, वाघजी राव के ही वंशज थे। उन्होंने अपने महल के साथ ही 40 एकड़ भूमि का भी दान इस संस्थान के लिए किया। इस भूमि पर न केवल नज़रबाग महल था, बल्कि तीन और महल थे। इन चार मे से तीन महल उन्होंने संस्थान को दे दिए। नज़रबाग महल में जहां कॉलेज अवस्थित है, वहीं दूसरा महल छात्रावास के तौर और तीसरा महल कॉलेज के प्राचार्य के निवास के तौर पर उपयोग किए जाते हैं। चौथा महल उन्होंने अपने निजी उपयोग के लिए रखा।
पहले यहां अभियांत्रिक कुशलता के नमूना के तौर पर झुलतो पुल का निर्माण और फिर अपने महल का दान कर उसमें इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना सौराष्ट्र की इस ऐतिहासिक भूमि के राजाओं की आधुनिक सोच को दर्शाता है।
मच्छु नदी बहुत बड़ी नदी नहीं है और ना ही यह बहुत चौड़ी है। पड़ोसी जिले सुरेन्द्रनगर के चोटिला तालुक से शुरु होकर यह कच्छ के रण तक पहुंचते-पहुंचते विलीन हो जाती है। मोरबी में इसकी चौड़ाई का अंदाज इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसपर बने झुलतो पुल की कुल लंबाई 233 मीटर है। पुल की चौड़ाई मात्र 1,25 मीटर है जो जाहिर तौर पर पैदल के उपयोग के लिए ही रखी गई थी।
झुलतो पुल के इतिहास और भूगोल को जान लेने के बाद अब यह समझते हैं कि यह पुल गिरा क्यों? दरअसल यह पूरा इलाका रमणीक तो है ही, पर्यटन क्षेत्र के तौर पर भी इसकी लोकप्रियता है। यहां जैसे अनेक महल हैं, वैसे ही अनेक मंदिर भी हैं। दरबारगढ़ महल को होटल में तब्दील कर दिया गया है जबकि उससे थोड़ी ही दूर पर मोरबी का शाही महल स्थित है। सामने के तट पर इंजीयरिंग कॉलेज के अलावा श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था निर्मित स्वामीनारायण मंदिर, अग्नेश्वर महादेव मंदिर तथा माँ मच्छो मंदिर भी हैं। गुजरात का पर्यटन विभाग इस पुल को दर्शनीय स्थलों में शुमार करता है। वह इसे अभियांत्रिक करिश्मा के तैर पर विज्ञापित भी करता रहा है।
दुर्भाग्य से आपदाएं यहां की रमणीकता में खलल डालती रही हैं। 1979 में मच्छु नदी पर बना बांध टूट गया था और यह इलाका जलमग्न हो गया था। पानी के भारी वेग से जान-माल को भारी क्षति पहुंची थी। इसके बाद सन 2000 में यहां भूकम्प भारी तबाही साथ लेकर आया। इस भूकम्प में झुलतो पुल भी क्षति ग्रस्त हो गया और इस कारण उसे बंद कर देना पड़ा था।
वहीं के स्थानीय व्यावसायिक प्रतिष्ठान ओरेवा समूह को पहली बार 2008 में इस पुल की मरम्मत का काम सौंपा गया था जो 2018 तक कायम रहा। इसके बाद 2020 में फिर से इस पुल के मरम्मत के काम को उसे सौंपने की बात हुई। तब ओरेवा समूह तथा स्थानीय प्रशासन के बीच बातचीत के बाद एक मसौदे तैयार हुआ पर समझौता इसके बाद भी लंबित रहा और तब कंपनी ने दबाव डालते हुए कहा कि जब तक विधिवत समझौता नहीं हो जाता, वह इसकी पूरी मरम्मत नहीं कराएगा। बताया जाता है कि पुल को कामचलाऊ मरम्मत के बाद चालू कर दिया गया पर वहां लोगों का आना-जाना कम ही रहा।
फिर इस वर्ष 7 मार्च को दोनों पक्षों के बीच विधिवत 15 साल का समझौता हुआ, जिसके तहत कंपनी को पूरी तरह मरम्मत कराने के लिए दो करोड़ का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया और उसे इस काम के लिए आठ से बारह महीनों का वक्त दिया गया। इसमें यह प्रावधान रखा गया कि पूरी तरह मरम्मत कराने के बाद वही इसका रखरखाव करेगा और इसकी भरपाई टिकट लगा कर करेगा। टिकट की कीमते भी तय की गई जो शुरु मे तो 12 एवं 17 रुपये सुनिश्चित की गई, जिन्हें साल – दर – साल बढ़ा सकने का अधिकार भी कंपनी को दिया गया। इसके बाद कंपनी ने पुल की मरम्मत का काम खुद न कर के उसे किसी अन्य को सौंप दिया। वैसे भी ओरेवा कंपनी घड़ी निर्माता कंपनी है और सिविल कंस्ट्रक्शन का उसे कोई अनुभव नहीं है। फिर जो काम कम से कम आठ महीनों में किया जाने को था, उसे आठ महीना पूरा होने से पहले ही समाप्त घोषित कर दिया गया और कंपनी ने पर्यटकों के लिए पुल खोलने का इकतरफा ऐलान कर दिया। इसके लिए न तो नगर पालिका से अनुमति ली गई और ना ही मरम्मत कार्य के संतोषजक समापन का प्रमाण लेने की आवश्यकता ही समझी गई।
कंपनी के मालिक जयसुख पटेल ने बाकायदा प्रेस कांस्फरेंस कर के कहा कि पुल के मरम्मत का काम पूरा करा लिया गया है और उसे 25 अक्टूबर को खोला जा रहा है। जाहिर है उसे मरम्मत के लिए जहां कम से कम आठ महीने लगाने के लिए कहा गया था, वह अवधि इस तारीख तक पूरी नहीं हो पाई थी। जिस कंपनी ने यह काम किया था, उसका कहना था कि इस पुल पर अधिक से अधिक सौ लोग ही एक समय पर होने चाहिए। यदि यह सावधानी बरती जाती है तो पुल को अगले 25 साल तक कुछ नहीं होगा। हालंकि बताया जा रहा है कि पुल की मरम्मत के दैरान न तो तारें बदली गई, और ना ही नट-बोल्ट बदले गए। बस नीचे के तख्तों को बदल कर काम पूरा बता दिया गया। खबरों में यह भी सुनने में आता है कि पहले जहां लकड़ी के तख्ते लगे थे, वहीं अल्मूनियम के तख्त लगा दिए गए, जिससे पुल पर अनावश्यक बार बढ़ गया।
श्री पटेल ने प्रेस कांफ्रेंस में यह दावा तो किया कि पुल आगामी 15 साल तक के लिए तैयार है पर यह छिपा गए कि इसपर एक साथ कितने लोग चढ़ सकते हैं। उन्होंने केवल प्रेस के जरिये ही पुल के खोले जाने की जानकारी नहीं दी, बल्कि बाकायदा प्रधानमंत्री की तस्वीर वाले होर्डिंग लगवाकर उसका प्रचार भी किया। यह प्रचार का ही असर था कि गुजराती वनवर्ष मनाने वाले लोग इस दर्शनीय स्थान पर बड़ी संख्या में आ पहुंचे। चूंकि टिकट एजेंटो या गार्डों को संभवतः यह नहीं बताया गया था कि उन्हें क्या सावधानियां बरतनी हैं, अतः उन्होंने जम कर टिकट बेचे। और जितनी टिकटें बिकती गई, उतना ही वे अपनी उपलब्धि पर खुश भी होते रहे। भीड़ को देखते हुए उन्होंने बारी-बारी से छोटे-छोटे समूहों में लोगों को पुल पर भेजने की बजाय लगातार लोगों का रेला करा दिया।
जाहिर है कि अपने आरंभिक काल में जिस पुल पर मात्र 15 लोग ही एक साथ जा सकते थे, उसपर एक साथ सौ भी नहीं, चार सौ लोग जा चढ़े और इसके बाद जो नहीं होना चाहिए था, वही हुआ। जो अघट था, वह घटा।