Ranjan Kumar Singh

नाम बड़े और दर्शन छोटे

कैसे मैं कैलाशपति मिश्र की राजनीति का शिकार हुआ

झूलन जी को दूर से देखकर मैंने हाथ हिलाया तो वह भागे-भागे मेरे पास पहुंच गए।
कैलासपति मिसिर वाला कहानी नहीं सुनाइएगा? अपनी आदत के अनुसार उन्होंने इस बार भी बिना किसी दुआ-सलाम के अपनी फरमाइश रख दी।
कौन सी कहानी? मैंने अनजान बनते हुए पूछा।
आप ही तो बोले थे कि समय होगा तो आप कैलासपति मिसिर का कहानी कहिएगा।
देखिए, कैलाशपति मिश्र आज हैं नहीं और मेरा सिद्धान्त है कि किसी की आलोचना मैं उसके पीठ पीछे नहीं करता। जिसके बारे में बोलना होता है, उसके रहते बोलता हूं ताकि उसे भी अपनी बातें कहने का मौका मिल सके। वह रहते तो मैं उन्हें छील कर रख देता, पर आज जब वह नहीं हें तो मैं उनके बारे में क्या कहूं।
पर आप ही तो खुद बोले थे…
जरूर कहा होगा। दरअसल, जब कभी मुझे कैलाशपति मिश्र की याद आ जाती है तो स्वाभाविक तौर पर मैं विचलित हो उठता हूं। और ऐसे में बार-बार इच्छा होती है कि उन्हें छील कर रख दूं ताकि लोग उनके वास्तविक रूप को देख-जान सकें। पर फिर जब स्वयं को संयत कर के सोचता हूं तो लगता है, ऐसा करना सही नहीं। उनसे मैं कभी न मिला होता तो ठीक था।
ऐसा का हो गया था कि उनका याद भी आपको तिलमिला देता है?
मैं इस प्रकरण से बचने की जितनी ही सचेत कोशिश कर रहा था, उतना ही वह पिले पड़े थे कि मैं वह कहानी उन्हें सुना डालूं। मैं बोल ही पड़ा, आज की राजनीति में मैंने अनकों का अधोपतन देखा है, पर कैलाशपति मिश्र जैसी चारित्रिक दुर्बलता किसी और में शायद ही मिले।
मैंने स्वयं को संयत करने का प्रयास किया, पर झूलन जी भी कुछ और ही मिट्टी के बने थे। उन्होंने कहा, जब एतना कह दिए तो और भी कह दीजिए। आपके मन का भार कुछ कम जाएगा।
मैंने कहा कुछ नहीं, बस मुस्कुरा कर रह गया।
तो आप नहीं बोलेंगे? ठीके है। मन नही मानता तो मते बोलिए, ऐसा कह कर झूलन जी ने गेंद मेरे पाले में डाल दी।
झूलन बाबू, यह ऐसी याद है जो मुझे बहुत कुरेदती है। मैं इसे भूलने की भरसक कोशिश करता हूं पर भूल नहीं पाता हूं। मैं कहानी तो खैर आपको नहीं सुनाउंगा, पर मैंने कैलाशपति मिश्र को जो पत्र लिखा था, उसे जरूर आपको दे दूंगा ताकि आप खुद से पढ़कर कहानी समझ लें।
यह कह कर मैंने अपनी जेब से एक चिट्ठी निकाली और उन्हें थमा दी।
उन्होंने उलट-पलट कर चिट्ठी देखी और फिर उसे मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, जब चिट्ठिया निकाले दिए हैं तो खुदे इसको पढ़ दीजिए ना।
मैं इसके लिए तैयार हो गया। दरअसल, इस प्रकरण ने मुझे इतना आहत किया है कि उसका जिक्र करते हुए मैं खुद ही बहक जाता हूं और फिर मैं क्या कह जाउंगा, यह मेरे वश में नहीं रहता। इसलिए मैं सार्वजनिक तौर पर इस कहानी को कहने से बचता हूं। इस कहानी के पात्रों को लेकर मेरे दिल में जो गुब्बार है, मेरी शिष्टता उसे मेरी जुबान पर आने नहीं देती। पर चिट्टी तो पढ़ ही सकता हूं क्योंकि इसमें बहकने की गुंजाइश कम है। लाग-लपेटकर सुनाने की गुंजाइश भी नहीं है।
मेरा मन टटोलकर झूलन जी ने पूछा, तो चलें अपने पुराने अड्डे पर?
नहीं, नहीं, आज कॉफी शॉप रहने दीजिए। यहीं कहीं आसपास में बैठ जाते हैं।
यह कहकर मैंने दाएं-बांए निगाह दौड़ाई तो पास में ही चाय की दुकान नजर आ गई।
आईए, यहां बैठते हैं, मैंने कहा और उधर बढ़ गया।
पर चाय तो आप पीते नहीं? झूलन जी को हैरानी हुई।
आप चाय पीजिएगा, मैं कुछ ठण्डा पी लूंगा, मैंने उस दुकान में कोका कोला की बोतलों को देखते हुए कहा। इसके साथ ही हम दोनों वहां पड़ी बेंच पर जा बैठे और मैंने एक चाय और एक कोक लाने का आदेश दे दिया।
हां, तो? झूलन जी चिट्ठी का मजमून जानने को बेताब हो रहे थे।
चिट्ठी मेंरे हाथ में ही थी। उसे खोलते हुए मेरे भीतर एक काल खंड गुजर गया। काश यह समय मेरी जिन्दगी में न आया होता। काश में उस आदमी से न मिला होता।
मैंने पढ़ना शुरु किया,
माननीय कैलाशपति मिश्र जी
अब जब औरंगाबाद विधानसभा क्षेत्र के लिए भाजपा उम्मीदवार की घोषणा हो चुकी है और मैं आपका कोपभाजन बना हूँ, इस पत्र के माध्यम से अपनी भावनाएं आप तक पहुंचाना चाहता हूँ। चूंकि आपने दलीय बैठकों में मेरे खिलाफ यह दलील दी कि मैं मूर्ति अनावरण’ के लिए आपको बुलाकर अपना राजनैतिक मतलब सिद्ध करना चाहता था, मेरे लिए आपको यह याद दिलाना आवश्यक हो गया है कि कामता सेवा केन्द्र के जिस कार्यक्रम में हम आपको श्रद्धापूर्वक बुलाना चाहते थे, उसमें मूर्ति अनावरण शामिल नहीं था । निश्चय ही आपकी याददाश्त आपको धोखा देने लगी है। कार्यक्रम का निमंत्रण-पत्र संलग्न है। यदि आपने मेरा विरोध राजनैतिक तौर पर किया होता तो मुझे इसका कोई मलाल नही होता, पर चूंकि आपने अपनी ढलती याददाश्त के सहारे मुझपर व्यक्तिगत आरोप लगाया और मुझे ‘फ्रॉड’ कहा, इसलिए उसका प्रतिकार जरूरी है।
ऐं? आपको फ्रॉड बोले? ऐसा काहे? आप तो किसी को परेसान करने वाले आदमियो नहीं हैं, किसी के साथ फ्राडगिरी तो दूर का बात, झूलन जी मुझे टोके बिना न रह सके।
आप यूंही टोकते रहेंगे तो मैं चिट्ठी कैसे पढ़ूंगा? जरा धैर्य से सुनिए तो सब समझ में आ जाएगा, मैंने कहा और चिट्ठी फिर से पढ़ने लगा,
यदि आपकी सहमति के बिना मैंने आपका नाम निमंत्रण-पत्र पर छपवाया होता तो निश्चय ही आप मुझे ‘फ्रॉड’ कह सकते थे। आपकी सहमति के बाद ही हमने आपको कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया था और आपकी अनुमति से ही आपका नाम निमंत्रण पत्र पर छापा गया था, क्या इसके लिए भी मुझे सबूत देना होगा? वायदे के बाद भी आप कार्यक्रम मे शामिल नहीं हुए, तब भी क्या मैं ही ‘फ्रॉड’ हूँ? पटना और फिर दिल्ली में संपन्न भाजपा की बैठकों में आपने कहा कि देव में आपका कार्यक्रम लेने के बाद मैंने प्रचार किया कि चूंकि आप इस कार्यक्रम में पधार रहे हैं, अतः मेरा टिकट सुनिश्चित है। यह बात आपको मालूम कैसे हुई? इस बीच तो आप कभी औरंगाबाद आए नहीं, फिर? जाहिर है कि आपने सुनी-सुनाई बातों को आधार बनाकर मेरे खिलाफ अपनी राय कायम कर ली। तब भी क्या मैं ही ‘फ्रॉड’? कौन थे वे लोग, जिन्होंने आपके कान भरे? 29 अक्टूबर 2004 को कामता सेवा केन्द्र समारोह से पहले श्री रामाधार सिंह आपसे मिलने दिल्ली पहुंचे थे, क्या आप इस बात को झुठला सकेंगे? समारोह में आपके नहीं आने की सूचना हमें बाद में मिली, जबकि रामाधार जी ने पहले ही यह ऐलान कर दिया कि उन्होंने आपका कार्यक्रम ‘कटवा’ दिया है। तब भी क्या आप यही कहेंगे कि मैंने ही आपके नाम का राजनैतिक दोहन करना चाहा?
झूलन जी अब मेरी बात बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे। मैंने पढ़ना जारी रखा,
शायद आपको पता न हो, कामता सेवा केन्द्र का यह कार्यक्रम विगत 30 वर्षो से चलता रहा है। पिताजी के बाद भी मैं उसे निष्ठापूर्वक आयोजित करता रहा हूँ। इस कार्यक्रम में जगजीवन बाबू से लेकर डा० लक्ष्मीमल्ल सिंधवी तक और लालूजी से लेकर श्री मुलायम सिंह यादव तक और अज्ञेयजी से लेकर डा० विद्यानिवास मिश्र तक शामिल हो चुके हैं। मैंने इस परम्परा में आपको शामिल करना चाहा, क्या मैं इसीलिए ‘फ्रॉड’ तो नहीं? आप पिताजी के मित्रों में थे, इसलिए मैं आपका आदर करता था। पिताजी शंकर थे और आप कैलाशपति, इसलिए मैं आपके प्रति श्रद्धा रखता था। पिताजी राज्यपाल के तौर पर गुजरात जाते-जाते रह गए थे, जबकि आप वहां इस पद को सुशोभित करके लौटे थे, इसलिए मैं समारोहपूर्वक आपका अभिषेक करना चाहता था। मेरी इस श्रद्धा के लिए आपने मुझे दंडित किया, इसपर मैं क्या कहूं? आप बुलाकर सिर्फ मुझे कह देते तो मैं इस चुनाव से स्वयं को अलग कर लेता, मुझे राजनैतिक मात देने के लिए आपको यह सब करने की क्या जरूरत थी?
हां, ई तो हमको याद है कि शंकर दयाल बाबू का नाम गुजरात के राज्यपाल के लिए तय हुआ था पर ऊ गए नही। झूलन जी ने हामी भरते हुए कहा। फिर यह समझ कर कि मैं इसे टोक न मान लूं, जल्दी से बोले, हम सुन रहे हैं, आप पढ़ते जाइए।
इस बीच मैंने अपना चश्मा साफ किया और फिर उसे आँखों पर डालते हुए चिट्ठी पढ़ने लगा,
आप जानते हैं कि आपके देव आने से मुझे जितना लाभ मिलता, मेरा उससे कहीं ज्यादा नुकसान आपने वहां न जाकर किया। विडम्बना यह कि समारोह में न पहुंच पाने के लिए क्षमा याचना के लिए आपने जो पत्र लिखा, वह मेरे नाम से न होकर संजय सज्जन के नाम था। समारोह में आपको मैंने बुलाया था, फिर संजय सज्जन के नाम पत्र भेजने का क्या औचित्य था? उनका संबंध न तो हमारे परिवार से है और ना ही कामता सेवा केन्द्र से। वह मेरे मित्र हैं, इसलिए उन्होंने यह पत्र मुझे पहुंचा दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको अंदेशा हो कि यदि आपने मेरे नाम पत्र लिखा तो मैं इसका राजनैतिक इस्तेमाल करूंगा? पिताजी हमारे लिए कोई बड़ी संपत्ति नहीं छोड़ गए। कुछ छोड़ गए तो संबंधों का विराट खजाना। उन्हें लिखे गए अनेकानेक पत्र इन संबंधो की सुगंध आज भी संजोए हुए है। इन संबंधों को भुनाने की लालसा हमें कभी नहीं हुई। आप समझ सकते है कि समारोह के बीच जब संजय सज्जन के नाम के साथ यह पत्र पढा गया तो मुझपर क्या बीती होगी। औरंगाबाद के लोगों ने जब बाद में आपसे मिलकर आपको इस ‘गलती’ के बारे में बताया तो आपने उसे भूलवश बताकर क्षमा मांग ली। समारोह में नहीं पहुंच पाने के लिए मुझसे तथा अन्य लोगों से आपने बार – बार क्षमा मांगी। अन्ततः मुझे ही कहना पड़ा कि बार-बार यह कहकर आप हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं। आप कितने क्षमाप्राथी थे और कितने शार्मिन्दा यह तो बैठक में आपके रूख और दलीलों से ही स्पष्ट हो गया है।
झूलन जी की नजरें मेरी पनीली आँखों पर थीं पर उनका पूरा का पूरा ध्यान था चिट्ठी की बातों पर। मैंने आगे पढ़ा,
कैलाशपति जी, मैंने कामता सेवा केन्द्र को पिताजी की धरोहर की तरह संजोए रखा है। हमने पिताजी के रहते कभी उनके नाम का दुरोपयोग नहीं किया। तो अब उनकी स्मृति और धरोहर का दुरोपयोग क्या करेंगे? इन्हें मैं राजनीति का जरिया क्या बनाउंगा, सच तो यह है कि मैं ही राजनीति का शिकार हुआ हूँ। यह पत्र मैं आपको टिकट के फैसले से पहले भी लिख सकता था, पर जान-बूझकर अब लिख रहा हूँ ताकि आप यह न कहें कि मैं आपके निर्णय को बदलवाना चाहता हूँ। मेरे पिता ही नहीं, मेरे दादा जी भी प्रतिष्ठित राजनेता और साहित्यकार रहे। कभी किसी पर आंच तक नहीं आई। पहली बार मुझे ‘फ्रॉड’ की उपाधि से विभूषित किया गया है, जबकि अपने जानते मैंने किसी को छला नहीं। छला जरूर गया हूँ। यह पत्र में आपको स्पष्टिकरण देने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। इसकी जरूरत भी नहीं । आप बहुत बड़े नेता है। आपका बहुत बड़ा प्रभामंडल है। मैं छोटा ही सही, पर मेरा आत्मसम्मान कम तो नहीं? इसपर आधात का अधिकार किसी को नहीं है, आपको भी नहीं।
पूरी चिट्ठी पढ़ने के बाद मैंने नजरें उठाईं तो देखा झूलन जी की आँखों में मेरे प्रति सहानुभूति के आँसू छलक आए थे। चिट्ठी को मोड़कर वापस उसे अपनी जेब के हवाले करते हुए मैंने लगभग बुदबुदाते हुए चिट्ठी की आखिरी पंक्ति को भी सुना दिया, सादर, रंजन कुमार सिंह. सचिव, कामता सेवा केन्द्र।
उन्होंने मुझसे पूछा, ई चिठिया आप हमेसा अपने पासे रखते हैं?
मैंने धीरे से गर्दन हिलाई और कहा, हां, यह मुझे याद दिलाता रहता है कि बड़े और ऊंचे ओहदे पर बैठ जाने से कोई आदमी महान नहीं हो जाता।
आप उनको ई चिट्ठी तो जरूरे दिए होंगे?
बिलकुल, यदि उन्हें न दी होती तो आज आपको भी न सुनाता। मैंने उन्हें यह पत्र रजिस्टर्ड डाक से तो भेजी ही, फिर यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह उन्हें जरूर मिले, उसे अवध किशोर के हाथों भी भिजवाया। उसके साथ औरंगाबाद के ही दर्जन भर और युवा थे। अवध ने कैलाशपति मिश्र के हाथों में यह पत्र थमाया और वहीं खड़ा रहा, जब तक कि उन्होंने पूरी चिट्ठी पढ़ नहीं ली।
उनका कौनो जवाब?
आपको क्या लगता है?
हमको तो ऐही लगता है कि उनको कोई जवाब देते नहीं बना होगा।
मैंने हां में सिर हिलाया तो उन्होंने पूछ लिया, पर ऊ अइसा किए काहे? हमहूं सुने हैं कि 2004 में आपको भाजपा का टिकट मिलना तय था, फेर का हुआ ई नहीं पता चला।
यह तो मैं सचमुच नहीं जानता। पर इतना जरूर कह सकता हूं कि मेरी काट में उन्हें जब कुछ भी नहीं मिला तो उन्होंने मेरे निमंत्रण को ही काट बना डाला।
ई कोउनो बात हुआ। उनको बुलाना कोई फ्राडगिरी थोड़े ही ना था। जेतना लोग वीआईपी गेस्ट बुलाता है, का सब का सब फ्राड है? पर समय देकर भी अपना वादा पूरा न करना और फिर इस मामला को तूल पकड़ाना फ्राडगिरी जरूर है।
मैं चुप ही रहा। क्या कहता? मुझे इस बाबत जो कहना था, वह मैंने कैलाशपति मिश्र के जीते जी कह दिया था और सिर्फ उन्हें ही नहीं, इस चिट्ठी की प्रतियां उन तमाम लोगों को भेजी थी जो मेरे खिलाफ इस षडयंत्र में शामिल थे।
मुझे चुप देखकर उन्होंने ही कहा, रंजन बाबू आप बहुते सीधा हैं। राजनीति आप जइसा लोग के लिए नहीं है। आपके पिता वाला जमाना अब नहीं रहा। राजनीति बहुते बदल गया है।
तो अब उठें? उनकी बात को अनसुनी करते हुए मैंने कहा और बेंच से उठ खड़ा हुआ।
हां, अब चला जाए पर एक बात बताइए। का आप सच्चों उनसे टिकट मांगने नहीं गए थे?
नहीं, मैंने इस बाबत सोचा भी नहीं था। कामता सेवा केन्द्र का काम मेरे लिए कोई राजनीति नहीं है, हो भी नहीं सकता। जब इस कार्यक्रम के लिए उन्हें बुलाया था तो यही सोचकर कि उनके आने से कार्यक्रम की शोभा बढ़ेगी, जबकि हुआ इसका उलटा। और फिर जब मुझे टिकट के लिए उपराष्ट्रपति भेरों सिंह शेखावत जी का ही आशीर्वाद मिला हुआ था, तब भला मुझे उनसे टिकट मांगने की जरूरत क्या थी?
ऐं, भैरों सिंह के बाद भी कैलासपति मिसिर आपका टिकट काट दिए?
कैलाशपति मिश्र ही क्यों, अच्छे-भले लोग लगे थे मेरा टिकट काटने में। सुशील मोदी से लेकर रविशंकर प्रसाद तक। मैं राजनीति का अनाड़ी था सो उनके दांव-पेंच समझ ही न सका।
अरे! ई कहानी तो जरूरे सुनेंगे, झूलन जी ने हठ से कहा।
ठीक है, मैं जरूर सुनाउंगा, पर आज नहीं, यह कहकर मैं आगे बढ़ गया।

Similar Posts

One Comment

Comments are closed.