एनडीए के घटक दल क्या मोदी पर बोझ हैं?
एनडीए 40-42 दलों का जमावड़ा तो बन गया पर ले-देकर उसमें भाजपा ही जिसका कोई मोल है। और भाजपा में भले ही अमित शाह से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं की भरमार हो पर ले-देकर वह मोदी पर ही आश्रित है। देखा जाए तो एनडीए के सभी घटक दल मोदी से ही ताकत पाते हैं, जबकि मोदी या फिर भाजपा को उनसे ताकत नहीं मिलती। ऐसे में भाजपा अपनी ही ताकत अन्य दलों में वितरित कर रही है जिसका मूल जोड़ वही का वही रहता है, बढ़ता नहीं। भाजपा वह डिस्ट्रिब्युटिव पॉवर है जिसका नेट अफेक्ट एनडीए में 40-42 दलों को मिलाकर भी वही है जो कि स्वयं भाजपा का।
दूसरी तरफ इंडिया, जिसे मोदी और उनकी मीडिया इंडी गठबंधन कहना पसंद करते हैं, 25-26 दलों का ऐसा समुच्य है जिसका प्रभाव धनात्मक है। एनडीए का आधार जहां भाजपा का डिस्ट्रिब्युटिव पॉवर है, वहीं इंडिया उसमें शामिल दलों का ऐडिटिव पॉवर है। यानी कि अनेक दलों के प्रभाव का कुल जोड़ है इंडिया और सब के सब दल इसे अपनी-अपनी ताकत दे रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा की ही ताकत एनडीए के घटक दलों में बंटी हुई है। जाहिर है कि ताकतें मिलकर बढ़ती हैं और बंटकर बिखर जाती है।
तेलुगु देशम पार्टी को छोड़ दें तो भाजपा को किसी अन्य दल से शायद ही फायदा मिल रहा हो। बल्कि सच तो यह है कि जदयू और जनता दल सेक्युलर जैसे दल उसके लिए भार बनकर ही आए हैं। फिर क्या कारण है कि मोदी ने आगे बढ़-बढ़कर उन्हें अपने साथ मिलाया है? जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं, इंडिया का प्रभाव धनात्मक या ऐडिटिव है। उसमें जो दल शामिल हैं, वे उसे मजबूती दे ही रहे हैं, और यदि उसमें जदयू और टीडीपी मिल जाते तो उनका प्रभाव भी उसमें स्वतः जुड़ जाता। मोदी इस बात को जानते हैं और इसीलिए उनकी कोशिश रही कि उनका अपना प्रभाव भले न बढ़े पर इंडिया के प्रभाव को तो बढ़ने से रोक दिया जाए। एक तरह से इन दलों को एनडीए में लेना अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश न होकर उस नुकसान को थामने की कोशिश है जो इन दलों के इंडिया में शामिल हो जाने से भाजपा को होती।
खास तौर से जदयू के बारे में कहा जा सकता है कि एनडीए में शामिल होकर वह भाजपा के लिए भले ही भार या लाइबिलिटी बना हुआ हो पर इंडिया के साथ मिलकर तो वह निश्चय ही उसकी ताकत बन जाता। सीटों में बात करें तो इंडिया में जदयू के रहने से बिहार में भाजपा की सीटों का कम होना तय था। अब जदयू का जो हो, पर भाजपा नें उसे मिलाकर अपनी सीटें तो बचा लीं लगती हैं।
मोदी की स्वीकार्यता देश में बेशक सबसे बड़ी है पर एनडीए के घटक दलों में या फिर भाजपा में ही उनकी स्वीकार्यता कितनी है, यह कहना मुश्किल है। साफ-साफ दिखता है कि तमाम दल और नेता मोदी के साथ किसी न किसी दबाव वश जुड़े हैं। वह दबाव उनके नाम पर चुनाव जीतने का हो या फिर ईडी-सीबीआई का, पर दबाव तो है और वह दिखता भी है। सब के सब अपनी-अपनी जरूरतों के कारण मोदी के साथ हैं। खुद मोदी को उनकी जरूरत पड़ी तो वे कितना साथ देंगे, यह तो वक्त ही बताएगा। जदयू और यहां तक कि टीडीपी भी, वक्त आने पर उनसे अलग खड़े नजर आएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही बात शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या फिर राष्ट्रीय लोकदल के बारे में भी कही जा सकती है। एक बार अजित पवार या जयन्त चौधरी जैसे नेताओं का अपना हित सध गया तो फिर वे शायद ही मोदी के साथ खड़े नजर आएंगे। ऐसे में प्रधानमंत्री बनने के लिए मोदी को कम से कम 272 सीटें खुद की चाहिए। यदि खुदा न खास्ता भाजपा 260 पर सिमट गई तो एनडीए के घटक दल उन्हें अपना समर्थन देंगे, इसमें संदेह है। अगर मोदी प्रधानमंत्री तिबारा बनना चाहते हैं तो उनके लिए भाजपा की 272 सीटें जरूरी होंगी, जबकि 260 सीटों में भी मोदी रहित एनडीए की सरकार बन सकती है।
वैसे आंकड़े अगर इंडिया के पक्ष में हुए तब हो सकता है कि एनडीए के ही घटक दल कांग्रेस के साथ जाने में परहेज न करें। मैं समझता हूं कि मोदी खुद भी इस बात को बखूबी समझते हैं और इसीलिए उनकी पूरी कोशिश होगी कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के आने के साथ ही वह जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लें और फिर येन-केन-प्रकारेण सभी घटक दलों और नेताओं को छिटकने से रोक दें। जरूरत पड़ी तो वह संसदीय दल की बैठक में सदन के नेता का चुनाव होने का इंतजार भी शायद ही करें क्योंकि उनसे ज्यादा दूसरा कोई और नहीं जानता कि शपथ ग्रहण में देर हुई तो उनके हाथों से सत्ता फिसलते भी देर न लगेगी।
वर्तमान भाजपा के सीट मे कमी होगा ऐसा लगता है।बिहार मे भाजपा- जदयू को 20-23 सीट मिलेगा, झारखंड मे भाजपा को 5 सीट मिलेगा और उत्तरप्रदेश मे 68 सीट ही मिलेगा।
Hung Parliament का संभावना है।
Anti-Incumbency factors है 50- 50 चांस है कि मोदी जी को पूर्ण बहुमत मिले।