Ranjan Kumar Singh

नाम तो बताएं, जरा धाम तो बताएं

जनता की ठठरी पर जनप्रतिनिधियों के ठाठ

Farmers

वह फिर मुझे सामने से आते दिख गए। उन्होंने भी मुझे देख लिया और मुझे कन्नी काटकर निकलने का वक्त न मिल सका।
वह लपक कर मेरे पास आ पहुंचे और शिकायती लहजे में कहा, आपने तो भाई हफ्ते भर से परेशान कर रखा है। जब से आपसे विदा हुआ, तब से बस यही सोच रहा हूं कि लालू के साथ आपकी मुलाकात कैसी रही होगी।
मैं भी नहीं भूला था कि हफ्ते भर पहले वह मुझसे मिले थे और उन्होंने कुरेद-कुरेद कर मुझसे मेरी राजनीतिक यात्रा के बारे में पूछा था। और तभी मैंने यह इशारा किया था कि लालू जी से तमाम विरोधों के बावजूद मेरी अनेक मुलाकातें उनके साथ हुईं, कुछ खट्टी, कुछ मीठी। तब उस बात को न बढ़ाते हुए मैंने ही कह दिया था कि फिलहाल इसे किसी और मुलाकात के लिए छोड़ देते हैं। तो अब जब हम फिर मिल गए थे तो वह मुझसे जानना चाहते थे कि कैसे मैंने लालू जी से अपने अपमानों का बदला लिया।
तो आज बताइगा न हमें उस बारे में? उन्हें सुनने की उत्सुकता थी। और मैं उनका नाम याद करने की कोशिश में लगा था। पिछली बार जब हम मिले थे, तब भी मुझे उनका नाम याद नहीं था। हां, चेहरे से जरूर पहचान रहा था। संकोचवश तब मैंने उनका नाम नहीं पूछा पर अब जब बातचीत का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा था, तो ऐसे में नाम जाने बिना काम नहीं चलने वाला था।
>मुझे बड़ा ही अजीब लगा। न हाल-चाल, न दुआ-सलाम, बस फरमाइश कर दी सुनाने के लिए। फिर भी मैंने उनसे कहा, जरूर सुनाउंगा, पर आपका नाम तो जान लूं?
ऐं, मेरा नाम भी नहीं जानते आप? अभी हफ्ते भर पहले ही तो हम मिले थे।
हां, मिले तो थे। तब भी मैं आपका नाम याद करता रह गया था, मैंने कुछ शर्मिन्दगी से कहा।
जनता को खूब बेवकूफ बना लेते हैं आप नेता लोग? उन्होंने ताना मारते हुए मुझसे कहा।
भाई, मैंने तो साफ-साफ कह दिया आपका चेहरा नहीं भूला हूं पर नाम याद नहीं। फिर इसमें बेवकूफ बनाने वाली क्या बात है?
नेताओं के लिए हम आम लोग एक अदद वोट से अधिक कुछ हैं क्या?
जो नाम तक याद नहीं रख सकता, वह काम क्या आएगा?
चलिए, आपकी ही बात मान लेते हैं। मैं आपके किसी काम का नहीं। मुझे लगा कि बात को यहीं खत्म कर देने में ही इज्जत है।
नहीं, नहीं, मेरा ऐसा कहना नहीं था। आप तो उन भले लोगों में हैं, जो हमेशा जनता के काम आए हैं। आपको नहीं याद होगा पर मैं आपसे बहुत पहले मिला था और मुझे अपने पिता के इलाज के लिए कुछ पैसे चाहिए थे। आपने पैसे तो दिए ही एम्स में कहकर हमें डाक्टर का समय भी दिलवाया।
मुझे वाकई यह याद नहीं था। हां, इतना जरूर जानता हूं कि ऐसे कई-एक हैं जो जरूरत बताकर मुझे पैसे मांग ले गए पर उसके बाद दशकों तक कभी नजर नहीं आए। मैंने भी कभी उनकी खैर-खबर नहीं ली।
मेरी बातों का बुरा मान बैठे क्या? सच कहता हूं, यह मैंने आपके लिए नहीं कहा था। आम नेताओं के लिए कहा था। आप तो अलग हैं।
मैंने भी बात को खत्म करते हुए कहा, शुक्रिया मुझे अलग समझने के लिए, पर सच तो यही है कि आपका नाम मुझे याद नहीं और मैं उन लोगों में भी नहीं जिन्हें यह मानने में झिझक हो। न उन लोगों में ही हूं जो किसी का भी नाम नहीं जानते पर इंतजार करते रहते हैं कि बातचीत में कब नाम का जिक्र आ जाए और वे उसका सिरा पकड़कर किसी को भी प्रभावित कर दें कि उन्हें कितने नाम याद रहते हैं।
ये तो आप सही बोले। हम भी समझते हैं कि सामने से हमें आता हुआ देखकर बहुत से नेता अपने पास वाले से हमारा नाम और धाम पूछ लेते हैं और फिर नाम से हमें संबोधित कर के अपना इंप्रेशन बना लेते हैं।
तो आप अपना शुभ नाम बताएंगे भी या नाराजगी ही जताते रहेंगे?
नहीं, भाई नहीं, आपसे कोई नाराजगी नहीं। आप जैसे प्यारे इंसान से कोई नाराज हो भी नहीं सकता। और अगर हो भी जाए तो उसे मना लेना आपको बखूबी आता है। हम लोग यह देखते हैं कि अपनी छोटी सी छोटी और बड़ी सी बड़ी गलती मानने में आपको संकोच नहीं होता। ऐसे लोग आज हैं कहां?
तो अब तो बता दीजिए अपना नाम?
जी, हमको झूलन कहते हैं।
मेरी सवालिया नजरों को ताड़कर उन्होंने आगे कहा, झूलन ही कहिए। हम झूलन सिंह भी कह दें तो आप क्या समझ लेंगे! राजपूत से लोकर भूमिहार तक तो सिंह ही कहलाते हैं। और तो और, हमने तो यादव से लेकर कोयरी-कुर्मी तक को अपने नाम में सिंह लगाते देखा है। और तो और, का राजपूत अपने नाम में सिन्हा नहीं लगाते? आपको नाम से लगेगा कि कायस्थ हैं, पर होते हैं राजपूत। फिर नाम का का? और हम अगर आपको बता दें कि हम झूलन सिंह हैं तो आप फिर हमारा गाँव पूछिएगा और अंदाजा लगाने की कोशिश करिएगा कि हम राजपूत हैं कि कोई और।
हमारा नाम, धाम, काम, चाम, आपको यही ना बतलाता है कि हम आपके वोटर हैं कि किसी और के। पर एक बात समझ लीजिए रंजन बाबू, हम झूलन सिंह हों या झूलन साव, झूलन राम हों या झूलन लाल, झूलन हों या झम्मन, फर्क नहीं पड़ता है। हम तो फकत वोटर कार्ड हैं, जिसका गिनती चुनाव के चुनाव होता है। हमसे पूछ-पूछ कर चुनावी वायदों का फेहरिस्त तैयार होता है और फिर हमें पूछने वाला कोई नहीं होता है। आप नेता हैं, और हम जनता। और आपके पिताजी सही लिख गए हैं, जनता की ठठरी पर ही जनप्रतिनिधियों के ठाठ बने हुए हैं। पर अब छोड़िए इन बातों को और बताइए हमको कि का हुआ था लालू के साथ?
मुझे लगा कि इतना सुनने के बाद कहानी सुनाना सही न होगा। फिर मुझे वाकई कहीं और जाने की जल्दी थी। सो मैंने कहा, कहानी जरा लंबी है। कभी और सही।
>रंजन बाबू आप किस्मत से आज मिल गए हैं, कल का का भरोसा? कहते भी हैं, काल्ह करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होएगा, बहुरि करेगा कब। हां, पास में एक कॉफी वाला है। चलिए वहीं चलें। हमको खूब याद है कि आप चाय नहीं पीते हैं, पर कॉफी तो पीते हैं ना?
उन्हें भी शायद यह नहीं मालूम था कि उन्होंने मेरी नब्ज पकड़ ली थी। मेरा और मेरी पत्नी का यही तो झगड़ा है। मैं चाय नहीं पीता और वह कॉफी नहीं पीती। पर मेरे लिए सुबह-सुबह कॉफी वही बनाती हैं। और फिर उस कॉफी के बाद मुझे दिन पर न तो कोई और कॉफी पीने की जरूरत महसूस होती है और ना ही इच्छा होती है। पर उनके हठ के आगे मेरी एक न चली और हम पास के कॉफी शॉप में चले आए।
अपनी जेब को टटोलते हुए उन्होंने मुझसे कहा, रंजन बाबू, कॉफी पिलाने का न्योता हमारा है। सो पैसे हम ही देंगे।
और यह कहते हुए उन्होंने दो कॉफी का आर्डर दे डाला। इधर मैं कॉफी सुड़कता रहा और उधर वे मेरी ओर टकटकी बाँधे देखते रहे। जब तक मैं पूरी कॉफी पीकर प्याला रख रहा था, वह अपने प्याले से घूंट, दो घूंट ही पी पाए थे।
अरे, आप तो बड़े ही जल्दी पी लिए कॉफी? ऐसे कहते हुए उन्हें उम्मीद थी कि मैं अब अपनी कहानी सुनाउंगा।
पर वाकई मुझे कहीं और जाने की हड़बड़ी थी। सो उन्हें उनके भरे प्याले के साथ ही छोड़ कर मैं उठ गया और उठते-उठते बोला, झूलन बाबू, आज नहीं। मेरी भी मुश्किल समझिए जरा। आज वाकई मुझे कहीं और पहुंचना है। अगर ऐसा न होता तो मैं आपको न केवल लालू जी की, बल्कि कैलाशपति जी की भी कहानी सुनाता।
मैं समझ सकता था कि वह ठगा सा महसूस कर रहे हैं। कॉफी के दाम चुकाने के बाद भी उन्हें जो कहानी सुनने को नहीं मिली। उनकी हालत वैसी ही थी जैसे कि वोट डाल देने के बाद किसी वोटर की होती है।
अपने चेहरे की हताशा को छिपाते हुए उन्होंने कुछ आश्चर्य मिश्रित स्वर में कहा, ऐं। कैलाशपति जी, वही भाजपा वाले।
मैंने धीरे से हां में अपनी गर्दन हिलाई और इससे पहले कि वह कुछ जिद्द करें, मैं जल्दी से वहां से निकल गया। पर चलते-चलते मैंने उनसे कहा, झूलन बाबू, कल यहीं मिलते हैं। शाम पाँच बजे। और हां, कॉफी के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।
यह सुनते हुए उनके चेहरे पर स्मित मुस्कान खिल उठी और मैंने महसूस किया कि उनकी आँखों में आशा की नई चमक जाग गई थी कि देर-सबेर ही सही पर कल जरूर आएगा।

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2 Comments

  1. बहुत रोचक, आगे का इंतजार करा दिया। जल्द अगली किश्त भेजें।

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